बच्ची सिंह बिष्ट
1993 में मैं जागेश्वर आ चुका था।उत्तराखंड आंदोलन से जुड़े विपिन त्रिपाठी जी, डा शमशेर बिष्ट जी, राजीव लोचन साह, पी सी तिवारी, प्रदीप टम्टा, प्रताप शाही, अनिल स्वामी, चंद्रशेखर कापड़ी जी और बहुत से सक्रिय कार्यकर्ताओं के कार्यक्रमों से जुड़कर जुलूस, प्रदर्शनों में भागीदारी करने लगा था।
1994 में मुजफ्फर नगर कांड से पहले हमने तमाम ग्रामीण महिलाओं और युवाओं के प्रतिदिन जुलूस निकाले और इस कांड के बाद तो हमने बड़ी बैठकों में खूब भागीदारी की..
1994 में हमने आंदोलन के दौरान ही दांपत्य जीवन अपनाया और बड़ी दीदी के साथ दनिया समेत तमाम स्थानों पर शराब बंदी आंदोलनों में भाग लिया।गिर्दा के साथ गाया और उनके गानों को जिया।
जागेश्वर का दूरस्थ इलाका जहां स्व खड़क सिंह खनी जी ने लोगों को आंदोलित किया था, उनकी सलाह पर हम वहां भी गए, तो वहां लोगों ने हमको बल्ली सिंह चीमा का गीत ले मशालें सुनाकर आश्चर्य में डाल दिया था।कई घटनाओं में हम अल्मोड़ा के सेवाय होटल की बहसों के हिस्सा बने तो कहीं तत्कालीन हिंदूवादी संगठनों की अराजकता को देखकर शमशेर जी को दुखी होते देखा ..
हमारा दायरा थराली, गरुड़, रानीखेत, गंगोलीहाट,अल्मोड़ा और कभी कभार नैनीताल तक सीमित रहा।हमने देखा घास काटती औरतें, पानी भरने जाती ग्रामीण महिलाएं, बच्चे, बूढ़े जवान लगातार सड़कों पर उतर आते थे।कुछ दिन चमोली और गोपेश्वर जाने का मौका मिला तो चंद्र सिंह राणा जी, सुदर्शन कठेत जी जैसे लोगों ने आंदोलन को धार दे रखी थी..
हरेक घर से लोग निकलते थे। आक्रोशित थे, सबके दिलों में एक ही अरमान था कि अपना राज्य होगा तो अपने निर्णय खुद करेंगे।रोजगार होगा। पलायन रुकेगा।बिजली, पानी, सड़कें, स्वास्थ्य केंद्र, टेलीफोन की व्यवस्था करेंगे और अपने प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन खुद करेंगे।
ऐसे पर्वतीय राज्य की कल्पना थी, जिसका मूल स्वरूप पहाड़ी होगा।राजधानी गैरसैंण होगी ।
बहुत अत्याचार सहे लोगों ने।मार खाई, परिजन खोए और भूखे प्यासे रहे।तब जाकर यह राज्य मिला..
राज्य बनने की घोषणा से लोग हैरान हो गए थे।राजधानी, मुख्यमंत्री, सीमा विस्तार और राज्य के घोर विरोधियों का सत्कार इतना निराशाजनक था कि लोगों ने कोई खुशी नहीं मनाई…
हम सोचते रहे कि कुछ होगा, अब होगा।लगातार राज्य विरोधी लोग सत्ता पाते रहे और लोगों के सपनों से खेलते रहे।
लोगों को जब बेहद नाउम्मीदी हुई तो लोगों ने राज्य को छोड़ना ही बेहतर समझा।
ऐसे ऐसे फर्जी आंदोलनकारी बनाए गए, जिन्होंने कभी राज्य आंदोलन तो क्या किसी आंदोलन में भागीदारी की ही नहीं थी।जिस पार्टी का जो था, उसका प्रमाणपत्र उसके मुखिया से मिला।साथ में पेंशन, नौकरियों का झुनझुना दिया तो सब लमलेट होकर सत्ता की गुलामी में मशगूल हो गए।राज्य के असली लड़ाके भुला बिसरा दिए गए।
25 साल हो चुके। न राजधानी, न भूमि का हक, न संसाधनों का निर्णय और न ही उजड़ते गांवों के अस्तित्व पर कोई नीति बनाई गईं।लोगों को एक नया काम मिल गया, धर्म के नाम भीड़ बनने का।
अब राज्य में गांव उजड़ चुके और मंदिर आबाद हो गए।राज्य बनने की लड़ाई, संघर्ष, त्याग, बलिदान, शहादत आदि सब बेकार हो चुके हैं।
अब राज्य एक प्रयोगशाला बना है और सफलता से सभी उसमें कीटाणु बनने जो तैयार हो चुके हैं…
वो जो लड़ाई थी, देशी पहाड़ी, हिंदू गैर हिंदू की नहीं थी।पर्वतीय उत्तराखंड की अस्मिता की थी, पहचान और सामूहिक निर्णय की थी।जिसका नेतृत्व करने वालों के पास भले ही खाका साफ नहीं था लेकिन उनके पास संवैधानिक कौशिक समिति की सिफारिशें थी और देश के अन्य पर्वतीय राज्यों के द्वारा किए जा रहे कार्यों का उदाहरण मौजूद था…
अब आत्मसम्मान चोटिल नहीं होता, अब गालियां स्वीकार हैं लेकिन राज्य को लेकर ईमानदारी से संवारने की जिम्मेदारी स्वीकार नहीं।
आपस में लड़ते लोगों को देखकर इतना तो अंदाज लगा ही सकते हैं कि ये कभी लोगों के लिए लड़ ही नहीं सकते हैं।
अपने बच्चों को जो राज्य देकर जाओगे, उसमें पर्वतीय उत्तराखंड और आत्म निर्णय का अधिकार शेष नहीं होगा।
सबके ढोलक अपने अपने, सबके गीत अपने हैं।सबको सीधा मुख्यमंत्री बनना है लेकिन लोगों को जोड़ने का कोई कष्ट नहीं उठायेगा इसलिए अभी सिर्फ दो चार गालियां मिली हैं, औलादों के लिए भण्डार जमा है।
पिछली पीढ़ी थक चुकी, या विदा हो चुकी लेकिन अब जिनके हाथ आंदोलन की कमान है, उनकी हथेलियों में छाले नहीं पड़े हैं, इसलिए विफलता ही मिलेगी।
“कैसी होली विकास नीति कसी होली व्यवस्था, उत्तराखंड ल्यूल जब मन कस बनोल,
जिंदा कौमें 5 साल इंतजार नहीं करती और हमने 25 साल तक चुप्पी साधी है।