इन्द्रेश मैखुरी
यह विडंबना है कि बहुदा तमाशे को भी संघर्ष समझ लिया जाता है. जबकि तमाशे और हुड़दंग संघर्ष नहीं हैं बल्कि वे संघर्ष को कमजोर करने में ही मददगार होते हैं.
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी सितारे हैं . वे समाज बदलने की लड़ाई में लगे हर व्यक्ति के लिए प्रेरणास्रोत हैं. लेकिन हर आड़ू- बेड़ू- घिंगारू जिसका मामला अस्थिर हो, उसे भगत सिंह करार देना, उस व्यक्ति का सम्मान तो नहीं पर भगत सिंह का अवमूल्यन जरूर है. भगत सिंह कोई दिमाग से पैदल या सनकी किस्म का नौजवान नहीं था. वो बेहद पढ़ने वाले और विचारवान युवा थे. “भगत सिंह और साथियों के दस्तावेज” जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है, उसे देख भर लें तो इस बात का अंदाजा हो जायेगा. भगत सिंह की जेल डायरी ही देख लें तो पता चलता है कि जेल में रहते हुए , फांसी का इंतजार करते हुए भी वे दुनिया भर के लेखकों- विचारकों की पुस्तकें पढ़ रहे थे, जिनके नोट्स उन्होंने डायरी में दर्ज किये. ये दस्तावेज ऑनलाइन उपलब्ध हैं, जो पढ़ना चाहें वे देख सकते हैं.
इसलिए सिर्फ तमाशे, सोशल मीडिया लाइक्स और व्यूअरशिप के लिए होने वाले किसी उपक्रम को भगत सिंह के समकक्ष न ठहराएं.
उत्तराखंड आंदोलनों की जमीन है. तकरीबन हर दशक में उत्तराखंड एक बड़े आंदोलन का गवाह बनता रहा है. लेकिन आंदोलनों में तमाशाई प्रवृत्ति भी एक पहलू है, जो प्रतिरोध की चेतना के विकास में अवरोधक का काम है. उत्तराखंड आंदोलन की अपनी तमाम विशेषताओं और व्यापक जनगोलबंदी के बावजूद, यह तमाशाई प्रवृत्ति उसमें पर्याप्त रूप से मौजूद थी. “समानांतर सरकार” जैसे तमाशाई प्रहसनों ने उस आंदोलन की धार और गंभीरता दोनों का क्षरण किया. राज्य जैसा बना, उसकी समूची अवधारणा ध्वस्त हो गयी, उसके कारकों में आंदोलन में विचारहीनता, गैर राजनीतिवाद और तमाशाई प्रवृत्ति प्रमुख है.
निश्चित ही उत्तराखंड के सामने आज बहुत गंभीर सवाल खड़े हैं. बीते 24 वर्षों में हुक्मरानों ने उसे ऐसी जगह पहुंचा दिया है कि अगर अब भी ना चेते तो तबाही निश्चित है. लेकिन इन जटिल हालातों से क्या सिर्फ गंभीर मुद्दों का तमाशा बना देने वालों और सनसनीखेज नारे उछालने वालों के जरिये पार पाया जा सकता है ? क्या सस्ती लोकप्रियता की आकांक्षा वालों से उत्तराखंड अपने गंभीर सवालों के हल की आस लगा सकता है ? यकीनन नहीं. हालात यदि गंभीर हैं तो उनका मुकाबला भी धैर्य, गंभीरता और वैचारिक दृढ़ता से ही संभव है.
चूंकि उत्तराखंड सत्ताधीशों द्वारा एक हताशा और खीज की स्थिति में पहुंचा दिया गया है, इसलिए बहुतेरी बार सनसनीखेज नारे देने वाले या फिर गंभीर मसलों का तमाशा बना देने वाले, उसकी इस खीज को कम करते हैं और थोड़ा मनोरंजन भी करते हैं. इसलिए उसे, ऐसों को देख कर थोड़ा मजा भी आता है और वे उसे क्षणिक तौर पर भाते भी हैं. लेकिन सनसनीखेज नारों और तमाशा खड़ा करने की मियाद मदारी के तमाशे जितनी ही है. इसलिए सनसनीखेज नारों, तमाशे और संघर्ष में फर्क करना सीखो प्यारे उत्तराखंड ! तुम सड़क पर तमाशा करने वालों को सिर पर बैठाते हो और विधायक- मंत्री बने तमाशेबाज़ तुम्हारे सिर पर नाचते हैं, तुम्हें लतियाते-गलियाते हैं.
एक अंग्रेजी कहावत है कि मसखरे को चुनिए और तमाशे की आस रखिये !
इसलिए संघर्ष का और जनता के गंभीर सवालों का तमाशा बना देने वालों पर खूब हंस भले लो, लेकिन उनमें मसीहा न तलाशो. तमाशों और सनसनी भरे नारों से नहीं धीर, गंभीर, वैचारिक संघर्षों से ही राह निकलेगी, उसमें वक्त भले ही ज्यादा लगे पर उसका कोई विकल्प नहीं है. संघर्ष हमेशा ही साझा होते हैं, कोई एक मसखरा या स्वघोषित मसीहा उन में पार नहीं लगाएगा.
नुक्ता-ए-नजर से साभार