सबसे पहले सुरंग में जाकर मुन्ना कुरैशी मिले मजदूरों से
17 दिनों तक सुरंग में रहने के बाद 41 मजदूरों को बाहर निकाल लिया गया है। यह संतोष की बात है कि सभी मजदूर सुरक्षित हैं। शुरुआती कुछ दिनों तक इन मजदूरों को सुरंग के अंदर कुछ भी नहीं मिल पाया था। 4 इंच के पाइप से संचार की शुरुआत मजदूरों ने ही थी। उन्होंने अंदर से पानी चला दिया था, जो पाइप से बाहर गिरा और 8 दिनों तक यही पाइप 41 मजदूरों के सांस लेने, चना-चबेना और बातचीत करने के आधार है। बाल बोलेगी पर इस घटना के सभी पहलुओं को लेकर बात की जाएगी। फिलहाल रविन्द्र पेटवाल का यह लेख जो रेस्क्यू ऑपरेशन को सफल बनाने वाले रेट होल माइनर्स के बारे में है। हालांकि मुख्य मीडिया पर इनकी चर्चा बहुत ज्यादा नहीं हो पाई है। रेट माइनिंग टोली के जो पहले सदस्य सुरंग में जाकर मजदूरों दे मिले उनका नाम मुन्ना कुरैशी है।
जो जानकारी मिल रही है, उसके मुताबिक ‘रेट होल माइनिंग’ पद्धति ही आखिर काम आई। भारत सरकार की तमाम एजेंसियां, अत्याधुनिक तकनीक और हॉरिजॉन्टल ड्रिलिंग, वर्टिकल ड्रिलिंग की कवायद नाकाम हो गई तो 12 श्रमिकों ने दो दिन पहले आकर देशी जुगाड़ पद्धति से 10-12 मीटर मलबे, सरिया और कंक्रीट की दीवार को पार करने में हाड़तोड़ मेहनत की और अपनी जान दांव पर लगाकर 41 जिंदगियों को बचा लिया।
यह मौका हमें एक बार फिर से याद दिला रहा है, हमारे जीवन को आसान बनाने वाले उन श्रमिकों को याद करने का, जो किसी भी मध्यवर्ग की जिंदगी में बेहद मामूली अहमियत रखते हैं। ताजा मामला रेट होल माइनर्स का है, जिन्हें कानून की निगाह में गैर-सामाजिक समझा जाता है। आगर मशीन के दो-दो बार फेल हो जाने पर सरकार की तमाम एजेंसियों का दिमाग ही काम करना बंद कर दिया था। ऑस्ट्रेलियाई एक्सपर्ट ने तो ईमानदारी से सार्वजनिक घोषणा पहले ही कर दी थी कि क्रिसमस तक हम इस बाधा को पार कर लेंगे।
करीब 50 मीटर अंदर जाकर आगर मशीन के ब्लेड टूट गये थे, क्योंकि मलबे के भीतर मशीनरी और सरिये के सामने आ जाने से मिट्टी-पत्थर काटने के लिए डिजाइन ब्लेड ही टूट गया था। जो लोग कंस्ट्रक्शन के बारे में जानकारी रखते हैं, उन्हें पता है कि ड्रिलिंग, कटिंग की मशीनों के ब्लेड या ड्रिल टिप को या तो मिट्टी-पत्थर काटने या आरसीसी/सरिया काटने के लिए अलग से डिजाइन किया जाता है। एक तरह की मशीनरी दूसरे पदार्थ को नहीं काट सकतीं।
यह बात एनएचएआई, प्रोजेक्ट कंसल्टेंट्स और सरकार के बड़े-बड़े इंजीनियर को कैसे नहीं पता थी, यह बात तो उन्हीं से पूछी जानी चाहिए। वर्टिकल ड्रिलिंग के लिए करीब 40 मीटर तक सुराख करने वाली मशीन तैनात कर दी गई थी, जिसको पहले योजना में शामिल ही नहीं किया गया था। कारण? पहले प्रशासन अंदाज लगा रहा था कि 800 मिलीमीटर के पाइप को मलबे के भीतर से प्रवेश कराना कोई बड़ी बात नहीं होगी।
उसने यह अनुमान भी लगाना ठीक नहीं समझा कि जो मलबा कंक्रीट लाइनिंग को फाडकर सुरंग के भीतर घुसा है, वह सुरंग के भीतर हटाने पर ऊपर से और भी तो गिरेगा। लेकिन इसके लिए तो कॉमन सेंस चाहिए, जो 2014 के बाद ूींजेंचच नदपअमतेपजल की कृपा से इस्तेमाल होना बंद हो चुका है। कल को इतिहास के पाठ्यक्रम में इतिहास के नाम पर जब देश के नौनिहालों को सिर्फ महाकाव्य ही पढ़ाये जाने की तैयारी की जा चुकी है, तो सोचिये उनकी कल्पना शक्ति में कॉमन सेंस के लिए कोई गुंजाइश भी रहने वाली है?
सुरंग के भीतर 12 रेट टनल माइनर्स को भेजा गया, जो दो लोगों की टीम बनाकर बारी-बारी से लगातार दिन-रात काम कर फावड़े, गेंती, हाथ से चलाने वाली ड्रिल मशीन की मदद से एक बार में 6-7 किलो मलबा निकाल रहे थे, और उन्होंने पलक झपकते ही वह चमत्कार कर डाला, जिसकी जानकारी हर सुबह उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बिला नागा दिया करते थे। यह बात उन्होंने खुद सुरंग के मुहाने पर बैठकर सुरंग में फंसे एक मजदूर को बताई थी।
बहरहाल मुख्य बात यह है कि उत्तर-पूर्व में अवैध कोयला खनन के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले इस रेट टनल माइनिंग की पद्धति को थक-हारकर इस्तेमाल किया गया, जैसे हम आज भी देश में जगह-जगह नाले चोक हो जाने पर गटर के भीतर जाकर एक ख़ास समुदाय के लोगों को अक्सर मौत के मुंह में जाते देखते हैं। आज भी हमारे देश में क्या गटर और क्या सुरंग, के लिए कोई सुरक्षा मापदंड नहीं बने हैं। बने हैं तो उनपर अमल करने की जरूरत नहीं समझी जाती। सिर्फ इसलिए, क्योंकि बिना सुरक्षा उपकरणों के भी देश में ऐसी जगहों पर जाने वाले लोगों की कमी नहीं है। रेट टनलिंग और गटर की सफाई करने वाले लोग पेट की आग के लिए यह सब करते हैं, और इन्हीं की बदौलत सभ्य समाज जिंदा है।
लेकिन हमारा जमीर इतना गिर चुका है कि गंगा से लेकर हिमालय तक को अपने निजी स्वार्थ, कॉर्पाेरेट मुनाफे और राजनीतिक सत्ता के लिए अपवित्र और छलनी करने वालों को तो हम हर हाल में सिर पर बिठाने के तैयार रहते हैं, लेकिन हमारे घरों, मुहल्लों, नदी, नालों और गटर ही नहीं पूरे देश को स्वच्छ और सुरक्षित रखने वाले हमारे ही जैसे आम भारतीय के काम को सम्मान की निगाह से नहीं देख सकते।
उस पाइप के भीतर घुसकर काम करने की जहमत कोई और सरकारी कर्मचारी क्यों नहीं कर सका? क्योंकि हमें पता है कि हम तो एक खास तरीके से ही काम करने के लिए प्रशिक्षित किये गये हैं। रेट टनल माइनिंग करने वालों को तो अवैध बताने के बावजूद वे इस तरह के काम दिल्ली, मुंबई सहित तमाम परियोजनाओं में करते हैं, जिनके बारे में देश के कानून और प्रशासन को पता ही नहीं है।
इन श्रमिकों की तरह जान जोखिम डालने की आदत और मजबूरी तो देश की सीमा की रक्षा करने वाले हमारे जवानों तक को नहीं होती। उनको तो वक्त आने पर ही युद्ध भूमि या दो-चार मौकों पर ऐसी परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता है। लेकिन ये लोग तो हर पल जान जोखिम में डालकर खुद से प्रशिक्षित लोगों की जमात बनाते हैं, जिसे क़ानूनी मान्यता तक हासिल नहीं है। सिलक्यारा टनल में काम करने वाले लोगों में से कितने श्रमिकों को बीमा के तहत रखा गया था, सिर्फ इसी की जांच करने पर आपको देश की हकीकत पता चल जायेगी।
लेकिन, हमें तो क्रिकेट विश्व कप हार के बाद जल्दी से एक बड़े इवेंट की जरूरत महसूस हो रही है, क्यों न सिलक्यारा सुरंग में फंसे लोगों को जिंदा वापस लाने की सफलता पर एक बड़ा इवेंट बना दिया जाये? बहुत संभव है कि चीजें इसी लाइन पर होती हुई दिखें। हमारा गोदी मीडिया जरूर आज की शाम को रंगीन बनाने वाला है। मीडिया की जय हो, इवेंट की जय हो, हमारे भीतर का बुराई और घृणा का रावण भले ही कभी न मरे, चलो हर साल रावण के पुतले को जलाया जाये।
(जन चौक से साभार )