राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा और उसके बाद

त्रिलोचन भट्ट

 

म्मीद है आप राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह के फारिग हो चुके होंगे। अब आगे क्या करना है, मुझे लगता है, इस पर बात करने की जरूरत है। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा शंकराचार्यों की सलाह और संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी कर किया गया, ये बात खूब चर्चाओं में रही। ऐसा क्यों किया गया, यह आप अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन क्या आपको लगता है कि इस काम के हो जाने के बाद बीजेपी को लोकसभा चुनाव में एकतरफा वोट पड़ने वाला है। मुझे तो इसमें संदेह है।

पहला सवाल यह कि यह आयोजन किसके लिए किया गया था। उनके लिए तो कतई नहीं जो बीजेपी और मोदी के लिए पूरी तरह समर्पित हैं। मेरे जैसे लोगों को गालियां देते हैं, जैसा कि इस वीडियो में भी देने वाले हैं। ऐसे लोगों को तो हर हाल में वोट बीजेपी को ही देना है। हाल के दिनों में सड़कों पर जलसे-जुलूस निकालते। आक्रामक तरीके से जहय श्रीराम का नारा लगाते। दीये जलाते, पटाखे फोड़े यही लोग थे। प्राण प्रतिष्ठा का यह आयोजन इन लोगों के लिए बिल्कुल नहीं था। यह आयोजन उन वोटरों के के लिए था, जो असमंजस में रहते हैं और जिन्हें चुनाव के ऐन वक्त अपनी तरफ किया जा सकता है। चुनाव में यही वोटर दरअसल निर्णायक भूमिका में होते हैं।


राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा में कोई ऐसी घटना नहीं हुई, जिस तरह की घटना की पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने आशंका जताई थी। ऐसे में प्राण प्रतिष्ठा का असर असमंजस वाले इन मतदाताओं पर बहुत देर तक रहने की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। 2019 तो याद होगा आपको। दुर्भाग्य से पुलवामा में हमारे 40 वीर सैनिक विस्फोट में मारे गये थे। इस घटना का असर असमंजस वाले मतदाताओं पर ज्यादा देर तक रहा। बीजेपी ने भुना दिया। मोदी जी ने इस घटना के नाम पर बाकायदा वोट मांगे और वे मिले भी। यह कितने अफसोस की बात है कि इस घटना के नाम पर वोट मांगकर मोदी जी पूरे पांच साल प्रधानमंत्री रह चुके, लेकिन हमारे 40 जवान क्यों शहीद हुए? किसने वह जघन्य कांड किया। इतना बारूद कहां से कैनवाई के रास्ते में आ गया, इसकी कोई जांच तो दूर, इन 5 सालों पर इस पर बात तक नहीं हुई, ठीक से। सत्यपाल मलिक गंभीर आरोप लगाते रहे, लेकिन सत्ता तो दूर विपक्ष ने भी अनेदखी कर दी।

राम मंदिर पर लौटते हैं। इस प्राण प्रतिष्ठा में राम मंदिर की असली लड़ाई लड़ने वालों को किस तरह दर किनार कर दिया गया, इस पर आपने पता नहीं ध्यान दिया कि नहीं। कहा जा रहा है 500 साल से लड़ रहे थे। कुछ कहते हैं 200 साल से। लेकिन 1949-50 से तो वास्तव में ये लड़ाई लड़ी जा रही है। लेकिन, किसने लड़ी? मोदी जी ने या मोहन भागवत जी ने? आरएसएस और बीजेपी तो 1984 के बाद मंदिर आंदोलन से जुड़े। इससे पहले निर्मोही अखाड़ा और हिन्दू महासभा ये लड़ाई लड़ते रहे। प्राण प्रतिष्ठा समारोह में निर्मोही अखाड़ा और हिन्दू महासभा क्या कहीं दिखे? नहीं न। 1984 के बाद भी आरएसएस और बीजेपी के जो लोग इस लड़ाई में आगे रहे, वे प्राण प्रतिष्ठा में कहां थे? आडवाणी जी, मुरली मनोहर जोशी जी और उमा भारती जी जैसे लोग तो दूर-दूर तक इस समारोह में नहीं थे। मुझे वो तस्वीर अच्छी तरह याद है, जो 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरने के बाद खूब छपी थी। मस्जिद टूटते ही खुशी के मारे उमा भारती जोशी जी की पीठ पर चढ़ गई थी। तस्वीर इंटरनेट पर अब भी मौजूद है। देख लीजिए।

मोदी जी दिल्ली से अपने करोड़ों के विमान में अयोध्या आये, क्या वे आडवाणी जी और जोशी जी को नहीं ला सकते थे? ला सकते थे, पर आडवाणी और जोशी जैसे राम मंदिर आंदोलन के अगवा नेताओं की मौजूदगी में मोदी जी का कद छोटा हो जाता। यही बात शंकराचार्यों के मामले में भी है। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत का एक वीडियो देख रहा था। जिसमें वे साफ कह रहे है और बिल्कुल सही कह रहे हैं कि राम मंदिर का आंदोलन मोदी जी ने शुरू नहीं किया था।

प्राण प्रतिष्ठा के लिए धार्मिक और संवैधानिक मूल्यों का किस तरह उल्लंघन किया गया, यह भी देखने वाली बात थी। मंदिर निर्माण अधूरा होने को लेकर या फिर मुहूर्त को लेकर, या बिना पत्नी पूजा को लेकर शंकराचार्यों और ज्योतिषाचार्यों ने कई सवाल उठाये। धार्मिक मामलों की ज्यादा जानकारी न होने के कारण मैं इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कह पाऊंगा, लेकिन आप खुद को धार्मिक कहते हैं तो किसी धार्मिक कार्य के लिए मुझे लगता है कि धार्मिक मान्यताओं का पालन किया जाना चाहिए। यदि आप ऐसा नहीं कर रहे हैं तो साफ है कि आप धार्मिक नहीं हैं और धार्मिक होने का सिर्फ आडम्बर कर रहे हैं, राजनीतिक लाभ के लिए।


अब आते हैं संवैधानिक मूल्यों पर। मैं क्योंकि संविधान का छात्र हूं तो इस पर स्पष्टता के साथ अपनी बात रख सकता हूं। आप सभी जानते हैं कि हमारा संविधान हर नागरिक को किसी भी धर्म अथवा पंथ को मानने अथवा न मानने की इजाजत देता है। लेकिन, यह भी कहता है धर्म हर नागरिक का व्यक्तिगत मामला है। धर्म में सरकार के हस्तक्षेप की हमारा संविधान इजाजत नहीं देता। धार्मिक स्थलों को निर्माण, उनका उद्घाटन प्राण प्रतिष्ठा या अन्य जो कुछ भी होता है, वह संबंधित धर्म के गुरुओं और उस धर्म के मानने वालों का काम है। देश के प्रधानमंत्री का मुख्य यजमान बनकर प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होना संविधान का उल्लंघन है। खुद ज्योतिर्पीठ के शंकराचार्य ने अपने एक बयान में यह बात कही है कि धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ लेकर प्रधानमंत्री बना व्यक्ति प्राण प्रतिष्ठा में प्रधानमंत्री के रूप में शामिल नहीे हो सकता।

बात यहीं नहीं रुकी। देशभर में स्कूलों और दफ्तरों को छुट्टी का फरमान जारी कर दिया गया। जिला स्तर पर प्रशासन की ओर से मोटा पैसा खर्च करके कार्यक्रम आयोजित किये गये। जब किसी विभाग के कर्मचारी या शिक्षक या व्यापारी या ट्रक ड्राइवर अपनी मांगों को लेकर एक दिन की हड़ताल करते हैं तो हाय तौबा मच जाती है कि इतने करोड़ का, इतने अरब का नुकसान हो गया। लेकिन, एक धार्मिक आयोजन के नाम पर आपने जो एक दिन सब कुछ बंद रखा, यहां तक कि अस्पताल भी। तो क्यों नहीं हिसाब लगाया गया कि कितना नुकसान हुआ?

एक मजेदार बात बताऊं। मेरे एक वीडियो पर किसी भाई ने कंमेंट लिखा- एक और सेकुलरासुर आ गया। इस तरह के नाम गढ़ लेते हैं ये। जैसे लिब्राण्डू सेकुलरासुर। जब मैंने लिखा कि भाई हमारा तो संविधान ही सेकुलर है तो कहने लगा कि सेकुलर बाद में बनाया गया संविधान। ये जो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी है उसमें ऐसा ही अधूरा ज्ञान दिया जाता है। दरअसल वो भाई संविधान की प्रियंवल की बात कर रहा होगा, जिसमें लिखा है- हम भारत के लोग भारत को संपूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न समाजवादी धर्म निरपेक्ष गणराज्य बनाने के लिए…… यह सच है कि प्रियंवल में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष शब्द बाद में जोड़े गंये। स्व. इंदिरा गांधी के कार्यकाल में। ये बात तो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में पढ़ाई जाती है अच्छे से। लेकिन यह नहीं बताया जाता है हमारे संविधान का मूल ढांचा ही समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष है।

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