तुषार रावत
- 20 फरवरी को कथित सशक्त भू कानून का प्रस्ताव विधानसभा के बजट सत्र में प्रस्तुत हुआ और अगले ही दिन 21 फरवरी को चंद घंटों में ही , किसी सार्थक चर्चा-विचार विमर्श के बिना ही यह पारित होकर कानून भी बन गया । दुर्भाग्य है कि उत्तराखंड विधानसभा की यही परंपरा रही है।
उत्तराखंड के कतिपय हिंदी अखबारों ने तो पहले से इस बारे में अपनी प्रकाशित रिपोर्टों के माध्यम से इसे एक सशक्त भू कानून और मुख्यमंत्री के क्रांतिकारी कदम के रूप में इसके गुणगान का प्रचार प्रसार शुरू कर दिया था । हर स्तर से माहौल यही बनाया जा रहा था कि इस कानून के बन जाने के बाद तो पूंजीपतियों या भू माफियाओं के द्वारा जो जमीनों की लूट चली आ रही थी उस पर अब प्रभावी रोक लग जाएगी ।
अब जब कि कानून बन ही गया है तो विचारणीय है कि इस कानून से क्या सच में ऐसा हो पाएगा ?
क्या सच में सरकार की व राजनेताओं की ऐसी कोई मंशा भी रही है या नहीं ?
इसके लिये तथ्यों की गहराई में जाकर समझने की जरूरत है I राज्य में जमीनों की लूट को रोकने के लिए इस नए कानून में क्या प्राविधान किये गये है ? और यह भी कि क्या इससे ऐसा कुछ हो भी पाएगा या नहीं ?
सरसरी तौर पर देखें तो इस कानून के प्राविधानों से निम्न कुछ बातें तो बहुत ही स्पष्ट हैं।
1 – कि यह कानून उत्तराखंड के 11 जिलों में ही लागू होगा यानी उधम सिंह नगर व हरिद्वार जिले में पूंजीपतियों व भू माफियाओं पर यह कानून कोई रोक-टोक नहीं लगाएगा ।
2- कि जिन 11 जिलों में यह कानून लागू होगा भी तो वहां भी उस जिले के नगरीय निकाय क्षेत्र व छावनी क्षेत्र भी इस कानून से मुक्त रहेंगे । यानी यहां भी लुटेरों के जमीन लूट के कामों पर कोई रोक-टोक नहीं होगी।
3- कि इन 11 जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में,जहां ये कानून लागू होगा वहां की जमीनों की लूट को रोकने के लिए जो प्रावधान किए भी गए हैं तो उसमें भी इतने किंतु परंतु लगे हैं कि उन्हें समझने में किसी भी आम व्यक्ति को तो चक्कर ही आ जाएगा । इसके बावजूद इसमें एक ऐसी बात है जो सरकार की मंशा को बहुत साफ कर देती है I वह यह है कि इन 11 जिलों में भी जहां यह कानून लागू किया जा रहा है, वहां के नगर निगम,नगर निकायों व छावनी परिषद के क्षेत्रों में भी यह कानून लागू नहीं होगा ।
इतना ही नहीं जो ग्रामीण क्षेत्र भविष्य में यदि कभी इन निकायों में शामिल किए जाएंगे तो उन क्षेत्रों पर भी तब यह कानून वहां लागू नहीं होगा। इस तरह से इस कानून के जरिए तो यह भी बता दिया गया है कि नगर क्षेत्र से लगे किसी ग्रामीण क्षेत्र को यदि आगे चल कर कभी भी नगर में ले लिया जाएगा तो तब यह कानून वहां भी ,लागू नहीं होगा।
सोचने की बात है कि ऐसा प्राविधान इस कानून में आखिर क्यों किया गया ? क्या ऐसे में यह आशंका करना सही न होगा कि ऐसा इसीलिए किया गया है ताकि ग्रामीण क्षेत्र में रहते क्योंकि जब वहां भू कानून लगा होगा तब तो वहां की जमीन की कीमत नगर क्षेत्र की तुलना में बहुत सस्ती रहेगी , तब पहले सरकार में बैठे नेता- आला अफसर और भू माफिया उन गांव की जमीनों का सस्ते में सौदा कर लेंगे और फिर बाद मे सांठ गांठ से उस ग्रामीण क्षेत्र को नगर में मिला कर, बढ़ी कीमत वसूल करके उससे करोंड़ॉ रुपये कमाएंगे।
यदि ऐसा नहीं है तो फिर इस कथित सशक्त कानून में ऐसा प्राविधान आखिर क्यों किया गया ?
इससे तो यही लगता है कि सरकार जो भू माफियाओं , पूंजीपतियों और भ्रष्टाचारियों को ही अब तक संरक्षण देती नजर आती रही है वह आगे भी उनके हितों को ही संरक्षण देते रहेगी।
सरकार की मंशा व पक्षधरता को समझने के लिए एक उदाहरण और पर्याप्त होगा।
जॉर्ज एवरेस्ट की 122 एकड़ जमीन जिसका सरकारी दर पर आज मूल्य 27 हज़ार करोड़ रूपया बताया जाता है , उसके समतलीकरण और सुंदरीकरण पर पहले सरकार 23 करोड़ रूपया खर्च करती है फिर उसे एक कंपनी विशेष को 15 साल के लिए एक करोड़ सालाना की दर से लीज पर दे देती है । इस महा भ्रष्टाचार का स्वतः संज्ञान लेकर जब माननीय न्यायालय ने इस प्रकरण पर सीबीआई जांच के आदेश दिए तो सरकार इस पर भी सीबीआई जांच करवाने की जगह माननीय उच्च न्यायालय के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने की तैयारी कर रही है , आखिर ऐसा क्यों ?
उक्त जमीन प्रकरण को लेकर सरकार के संसदीय कार्य मंत्री का यह बयान भी गौर करने लायक है जिसमें वह कहते हैं कि – “जॉर्ज एवरेस्ट के जिस टेंडर पर सवाल उठाए जा रहे हैं उसमें पूरी प्रक्रिया का पालन किया गया है । इससे पहले जहां 5 सालों में सिर्फ 18 लाख रुपए की आय हुई अब 1 साल में 1.20 करोड़ की आय हो रही है ” I उन्होंने इस सरकारी भ्रष्टाचार के बचाव में यह भी कहा कि “जिस जमीन को 171 एकड़ का बताया जा रहा है उसमें 7 एकड़ ही समतल जमीन है बाकी तो 60 से 80 डिग्री ढलान वाले पहाड़ है। “
इस सबसे सरकार व इसके राजनेताओं की मंशा व उनका भ्रष्ट चरित्र तो उजागर होता ही है वहीं विपक्षी दल का हल्कापन भी ।
यहां यह भी विचारणीय है कि यदि सरकार व इसके मुखिया धामी जी की मंशा साफ थी तो क्यों नहीं राज्य में जब सबसे पहले पहल 2023 में, जनता के हितों के प्रति प्रतिबद्ध ,अनेकों सामाजिक व राजनैतिक संगठन एकजुट होकर , त्रिवेन्द्र सरकार द्वारा 2018 के कानून को और इसे जमीन लुटेरों के लिए और भी ज्यादा सुगम बनाने वाले धामी जी के 2022 के कानून को ख़त्म करने की आवाज उठाते लगातार संघर्ष कर रहे थे तो तब ही क्यों नहीं ये जन विरोधी कानून वापस लिए गए I
कई पर्यावरण चिंतक एवं लोक हित के मुद्दों पर शोध कर्मी बौद्धिक विचारवान लोगों के साथ ही साथ ‘राज्य कैसा हो’ जैसे मुद्दों पर संघर्षशील उत्तराखंड महिला मंच , इंसानियत मंच , भारत ज्ञान विज्ञान समिति ,चेतना आंदोलन एवं अनेक वामपंथी व अन्य जन संगठनों एवं
C PI ML, CPM, CPI , समानता पार्टी , परिवर्तन पार्टी, समाजवादी पार्टी व कई अन्य क्षेत्रीय / परिवर्तन कामी संगठनों के नेतृत्वकारीयों के द्वारा तब इस आवाज को संयुक्त रूप लगातार उठाया जाता रहा ,बाबजूद इसके सरकार के द्वारा इस मांग को लगातार क्यों अनदेखा किया जाता रहा जिससे कि इन कानूनों के बने रहते जमीनों की लूट अभी तक भी लगातार जारी बनी रही I इतना ही नहीं तब तो उक्त मांग पर प्रतिबद्ध इन संगठनों की एकता और आंदोलन को कमजोर करने के लिए इसमें चालाकी से घुसे कुछ सरकारी एजेंटों के जरिए उस आंदोलन को कमजोर करने का प्रयास भी किया गया ।
सच्चाई यही है कि यदि सरकार की मंशा साफ होती तो सबसे पहले 2018 व 2022 के कानूनों को तत्काल निरस्त किया जाता जिससे कि इनकी वज़ह से लगातार जारी जमीनों की लूट को रोका जा सके I पर सरकार ने ऐसा नहीं किया जो साफ़ साफ़ इनकी दिली मंशा को दर्शाता है
दुख की बात यह भी रही कि इस सर्व प्रमुख मांग पर बाद में वर्ष 24 में गढ़वाल के पहाड़ी क्षेत्र से उठे व्यापक आंदोलन के आंदोलनकारी नेतृत्व ने भी इस पर अपेक्षित तवज्जो नहीं दी । जिसके चलते हुए , आज अब सशक्त भू कानून की जगह ऐसा लचर भू कानून लाकर लोगों को इस तरह से बरगलाया जा रहा है जैसे कि राजधानी के सवाल पर उन्हें आज तक भी बरगलाया जाता रहा है।
अब लाया गया यह कानून, आज भी वर्ष 18 के व वर्ष 22 के भू कानून के जरिए जो जमीनों की लूट की जा चुकी है, उस पर पूरी तरह से मौन है ।
सरकार बड़े गर्व के साथ यह तो जरूर बताती है कि वर्ष 2003 से अब तक 1883 मामलों में से 572 मामलों में कार्यवाही करके न्यायालय में केस दायर करने की कार्रवाही की गई है और 150 बीघा जमीन सरकार में निहित कर दी गई है (अर्थात प्रति ब्लॉक औसत निकालो तो लगभग डेढ़ बीघा जमीन प्रति ब्लॉक , सरकार ने अधिकृत की है कानून का उल्लंघन करने वालों से ) l परंतु सरकार यह नहीं बताती है कि 2018 के बाद तो साढे बारह एकड़ यानी 100 – 150 बीघा या इससे भी ज्यादा जिन जमीनों को तब खरीदा गया वह किन्होने खरीदी और उन पर कहां और क्या औद्योगिक कार्य हुए ? इस बारे में वह कुछ नहीं बताती है । उन पर क्या कार्रवाई सरकार करेगी ? या नहीं करेगी तो क्यों नहीं करेगी ? इस पर भी सरकार आज भी पूरी तरह से मौन है I सरकार के द्वारा इस बारे मे कहीं कोई जिक्र तक नहीं किया जाता है।
इस नए भू कानून में भी इन खरीदों के बारे मे कहीं कोई जिक्र नहीं है I
ऐसे में क्या ऐसे कानून को जनहित में लाया गया सशक्त भू कानून कहा जा सकता है ? यह विचारणीय है।
जरूरत है कि इस कानून के विरोध में सभी जन पक्षधर ताकते किसी एक व्यक्ति या किसी एक संगठन के नेतृत्व में नहीं बल्कि एक ऐसे सशक्त भू कानून को बनवाने के लिए एक मत होकर सामूहिक नेतृत्व के साथ संयुक्त मोर्चा या साझमंच बनाकर, पूरे उत्तराखंड में ऐसे सशक्त भू कानून को लाने की लड़ाई को आगे बढ़ाएं । एक ऐसी लड़ाई जो पूरे उत्तराखंड में अब तक की जमीनों की लूट को उजागर कर सके और आगे संभावित ऐसी लूट और लुटेरों से उत्तराखंड की जनता को सच्ची राहत दिला सके।