संविधान और मतदाताओं के बारे में

हिलाल अहमद

आम चुनाव कौन जीतता है सिर्फ इसी का मायने नहीं है।
प्रजातंत्र और सामाजिक न्याय के किन विचारों को गति मिलती है के मायने ज्यादा हैं।

लोक सभा का 2024 निर्वाचन एक महत्वपूर्ण राजनैतिक आयोजन होने जा रहा है। एक दशक तक सरकार में रहने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी पूरी तरह से बचाव की मुद्रा में दिखना नहीं चाहती है। इसके बजाय मोदी के नेतृत्व में पार्टी राजनैतिक व्यवस्था और आदर्शों की संपूर्ण पुनःसंरचना के लिए एक आक्रामक चुनौती के रूप में प्रस्तुत करने के लिए आतुर है। इस कारण से भाजपा लोक सभा के 2024 निर्वाचन को राजनैतिक जनमत संग्रह के रूप में प्रस्तुत करने जा रही है।

विपक्ष, खास तौर पर इंडिया गठबंधन, भी अगले चुनावों को निर्णायक राजनैतिक युद्ध के रूप में पेश करना चाहता है। भारतीय राजनीति का यह निर्वाचन केंद्रित संवाद एक साफ, लेकिन एक तरह से, सरल सवाल के इर्द-गिर्द घूमता है: आने वाले महीनों में कौन चुनावी युद्ध जीतेगा? लेकिन इससे भी आगे जाने की जरूरत है।

चुनावी नतीजों के आगे। हमें याद रखना चाहिए कि हमारा संविधान निर्वाचन को एक चुनी हुई सरकार बनाने के उपकरण के रूप में मान्यता देता है। दूसरी ओर संवैधानिक व्यवस्था में प्रजातंत्र एक नैतिक-राजनैतिक साधन है जिससे सामाजिक बदलाव का विहंगम उद्देश्य प्राप्त किया जा सकता है। इस तरह से 2024 के चुनाव के राजनैतिक अर्थ का मूल्यांकन संवैधानिक सुविधा के इस बिंदु से किया जाना चाहिए।

राजनैतिक मतभेदों के आगे। इस बारे में दो महत्वपूर्ण मुद्दे प्रासंगिक हैं: प्रजातंत्र का अर्थ और सामाजिक न्याय की परिकल्पना। इन आदर्शों को संविधा की उद्देशिका में उन उद्देश्यों के रूप में सूचीबद्ध किया गया है जिनको प्राप्त करने के लिए राजनैतिक वर्ग — सरकार और विपक्ष — को प्रयास करना चाहिए। ये उपनिवेश के बाद भारतीय राजनीति के अलिखित मूल्य रहे हैं।

प्रजातंत्र का अर्थ। सभी राजनैतिक दल इस बात पर सहमत हैं कि 2024 का निर्वाचन हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए निर्णायक है। इसके बावजू कोई भी प्रजातंत्र के अर्थ के बारे में साफ नहीं है। ऐसी धारणा बनाई जा रही है कि चुनावी प्रजातांत्र अपने आप में एक लक्ष्य है। चुनावी प्रतिस्पर्धा के खेल के रूप में प्रजातंत्र का यह सीमित अर्थ स्थापित मीडिया में चर्चा के अनुरूप है जो खुद गला काट प्रतियोगिता में रत है। यही कारण है कि सार्वजनिक चर्चा में दंगा, अखाड़ा और मास्टरस्ट्रोक जैसे शब्दों का बार-बार प्रयोग किया जाता है।

भाजपा क्या कहती है। हाल के वर्षों में पार्टी ने दो प्रमुख विचारों को आगे किया है — प्रजातंत्र की माँ के रूप में भारत और अमृत काल — ताकि हिंदुत्व संचालित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के परिपेक्ष्य से प्रजातंत्र पर एक कार्यशील मान्यता विकसित की जा सके। लेकिन किसी राजनैतिक-आइडियोलॉजी पैकेज के रूप में ये विचार अभी पूरी तरह से विकसित नहीं है। अभी भी पार्टी निर्वाचन को पेशेवर रूप में देखती है जहाँ पर जीतने की संभावना निदेशक सिद्धांत के रूप में ली जाती है।

विपक्ष को क्या कहना चाहिए। यह संविधान का आह्वान प्रजातंत्र की मूल पुस्तक के रूप में करता है और ऐसा करने में कोई भी रचनात्मकता या बौद्धिकता नहीं दिखती है। राहुल गाँधी की सफल भारत जोड़ो यात्रा ने काँग्रेस को एक अच्छा मौका दिया कि वह प्रजातंत्र की जमीनी परिकल्पना की पेशकश कर सके। लेकिन पार्टी ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। परिणामस्वरूप इंडिया गठबंधन अभी भी एक कथ्य की तलाश में है जिससे भाजपा का विरोध किया जा सके। ऐसा लगता है कि अभी भी विपक्ष विश्वसनीय राजनैतिक विचारों और चुनावी दक्षता के बीच संबंध पर गंभीरता से ध्यान नहीं दे रहा है। हालिया विधान सभा चुनाव के परिणाम इस बारे में अच्छा उदाहरण हैं।

संविधान क्या कहता है। यह व्यक्तियों और समुदायों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने के लिए एक समतावादी उपकरण के रूप में लोकतंत्र की परिकल्पना करता है। यह सामाजिक न्याय के विचार को राजनैतिक रूप से प्रासंगिक बनाता है।

जाति जनगणना कार्ड। विपक्ष (खास तौर पर जनता दल यूनाइटेड और काँग्रेस) ने इसे एक महत्वपूर्ण राजनैतिक मुद्दे के रूप में खोजा है। यह राजनैतिक खोज इतनी ताकतवर थी कि इसने विपक्ष को एक मौका दिया कि वह हाल के वर्षों में अपना खुद का एजेंडा निर्धारित कर सेक। लेकिन विपक्ष ने इस मौके को भी लगभग गँवा दिया। उन्नीस सौ नब्बे के दशक की पुरानी सामाजिक न्याय की राजनीति की सनक अभी भी है। इसे भाजपा के हिंदुत्व के विरोध में अभी तक राजनैतिक उत्तर के रूप में देखा जाता है। साथ ही साथ विपक्ष हिंदुत्व के बारे में भी साफ नहीं है।

हिंदुत्व कार्ड। गैर भाजपा पार्टियों के लिए 1990 के दशक में यह संभव था कि वे हिंदुत्व को सांप्रदायिकता के स्वरूप में अस्वीकार कर दें। भाजपा की 2014 के बाद की अवधि में सफलता ने धर्मनिरपेक्षता-सांप्रदायिकता के जोड़े को अस्थिर कर दिया है। अब किसी भी राजनैतिक दल के लिए यह विचारणीय नहीं है कि वह हिंदुत्व का वर्णन सांप्रदायिकता के रूप में करे ताकि अल्पसंख्यकों, ओबीसी और दलितों के संभावित सामाजिक गठजोड़ को फिर से बनाया जा सके।

सामाजिक न्याय कार्ड। दूसरी ओर भाजपा भारतीयता को परिभाषित करने के लिए विस्तृत ढाँचे के रूप में हिंदुत्व का आह्वान करती है। इस प्रकार के तर्क का उपयोग सामाजिक न्याय के विचार से निपटने के लिए भी किया जाता है।

• भाजपा ओबीसी, दलित और आदिवासी समुदायों तक पहुँच रही है ताकि वह अपने द्वारा ध्यानपूर्वक बनाए गए हिंदुत्व मतदाता वर्ग के स्कोर को और विस्तृत कर सके। पसमांदा मुसलमानों के तुलनात्मक पिछड़ेपन को उठाने में पार्टी का उत्साह एक सोची समझी चाल है ताकि हिंदुत्व मतदाता वर्ग में उन लोगों को संबोधित किया जा सके जो अभी भी समावेश में विश्वास करते हैं।
• जाति जनगणना ने निश्चित रूप से सामाजिक नये की इस परिकल्पना को गंभीर चुनौती दी है। यह रोचक होगा कि देखा जाए किस प्रकार भाजपा परिवार इस मुद्दे से निपटेगा, खास तौर पर बिहार में।

ऐसा लगता है कि 2024 का चुनाव लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के इन विवादित अर्थों के इर्द-गिर्द घूमने वाला है, जो अंततः भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के भविष्य के रास्ते को बनाएगा।

लेखक एक राजनीतिक विश्लेषक हैं

टाइम्स ऑफ इंडिया से साभार

अनुवाद शचीन्द्र शर्मा

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