मिलिये सिलक्यारा के महानायकों से

आस्ट्रेलिया से बुलाये गये टनलिंग एक्सपर्ट सिलक्यारा में बिना कोई खास योगदान दिये अब भी पहाड़ों में घूम रहे हैं, लेकिन फंसे हुए मजदूरों तक पहुंचने में अपनी जान की बाजी लगाने वाले रैट होल माइनर्स अपना काम पूरा करके लौट चुके हैं। अखबारों और चैनलों नेें इन गरीब रैट होल माइनर्स की चर्चा करने की जरूरत नहीं समझी। अर्नोल्ड डिक्स की खबर छापने वाले दरअसल इन लो प्रोफाइल लोगों को कैसे दिखा सकते थे। फिर भी सोशल मीडिया पर इन गरीब मजदूरों की जमकर चर्चा हुई, खूब तारीफ हुई। अलग-अलग जगहों ने इन रैट होल माइनर्स के बारे में जो जानकारी मिल पाई, उसे इस लेख में समेटने का प्रयास कर रहा हूं।
त्रिलोचन भट्ट

26 घंटे तक 12 रैट-होल खनिकों की टीम ने आखिरकार वहां तक पहुंचने में सफलता हासिल की, जहां बड़ी-बड़ी देशी और विदेशी मशीने नहीं पहुंच पाई थे। इनमें ज्यादातर मजदूर यूपी के दलित और मुस्लिम समुदायों से थे। 800 मिमी पाइप के भीतर घुसकर उन्होंने अपनी छेनी, फावड़े और का उपयोग करते हुए, अंतिम 18 मीटर मलबे को मैन्युअल रूप से खोदा। आयातित ड्रिलिंग मशीनों को मात देने वाले लोहे के गार्डर और कठोर चट्टानों को हटाने के लिए गैस कटर का उपयोग किया गया। उन्होंने निकाली गई मिट्टी को सुरंग से बाहर धकेलने के लिए एक छोटी ट्रॉली का इस्तेमाल किया, संकीर्ण पाइप के भीतर धूल के बादलों से होने वाली सांस की तकलीफ से निपटने के लिए अपनी नाक पर गीले तौलिये बांधे। यह टीम सिल्क्यारा साइट पर अपने काम के लिए एक पैसा भी नहीं लेना चाहती थी, लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने घोषणा की कि प्रत्येक सदस्य को 50,000 रुपये का भुगतान किया जाएगा।


सबसे पहले हम 35 वर्षीय मोहम्मद राशिद से मिलते हैं। 35 वर्षीय राशिद ने कक्षा 7 तक ही पढ़ाई की है। लेकिन सिल्कयारा सुरंग में 400 घंटे से अधिक समय से फंसे 41 ठेका मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकालने में उनकी अहम भूमिका रही है। राशिद यूपी के बागपत जिले के हैं। पाइप के अंदर 50 मीटर तक घुसकर उन्होंने 6 घंटे काम किया। एक पोर्टल के अनुसार उन्होंने कहा, उन्होंने अपने मजदूर भाइयों को निकाला। उनके काम की इतनी प्रशंसा कभी नहीं हुई थी। 45 वर्षीय मोहम्मद इरशाद कहते हैं, इंसान को इंसान समझे और देश में मोहब्बत बनी रहे, बस इतनी सी ख्वाहिश है। मूल रूप से मेरठ निवासी इरशाद 2001 में दिल्ली चले गये थे। कई सालों तक सुरंग बनाने वाली एक निजी कंपनी में काम किया। उन्हें अपना घर न बना पाने की दुख है। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ें और अच्छी नौकरी करें, जिससे उन्हें उसकी तरह अपनी जान जोखिम में डालने की जरूरत न पड़े।

33 वर्षीय रैट होल माइनर मुन्ना कुरैशी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मलबे की आखिरी परत को पार किया और दूसरी तरफ खड़े 41 मजदूरों को देखा। वे कहते हैं उन्हें देखते ही मजदूर खुशी से उछल पड़े और उन्हें लगे लगाया। मुन्ना कहते हैं, काम के दौरान जब मैं थका हुआ महसूस करता था तो मुझे अपने 10 साल के बेटे फैज़ के शब्द याद आते थे, जिसने मुझसे कहा था कि मुझे उन्हें बाहर निकालने के बाद ही वापस आना चाहिए। मुन्ना के अनुसार उनके छोटे से खेत में केवल परिवार के भरण-पोषण लायक अनाज होता है। वह कभी स्कूल नहीं गए। पिछले 15 वर्षों से इस जोखिम भरे पेशे में लगे हुए हैं।

कासगंज के मूल निवासी फ़िरोज़ क़ुरैशी मात्र 500 से 800 रुपये रोजाना कमा पाते हैं। इस अभियान का हिस्सा बनने से बहुत खुश हैं। कहते हैं, सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सिल्क्यारा में सुरंग ढहने की घटना कहीं भी दोबारा न हो। वे यह भी जोड़ते हैं, जब भी मेरी ज़रूरत होगी मैं पीछे नहीं हटूंगा। 45 वर्षीय वकील हसन टीम को लगातार प्रोत्साहित करते रहे। उन्होंने दृढ़ संकल्प किया था कि जब तक मजदूरों को बचाया नहीं जाता तब तक वे वापस नहीं जाएंगे। वह कहते हैं, ईद में इतनी ख़ुशी नहीं हुई, जितनी इनको निकाल कर हुई। .

24 साल के जतिन कश्यप और 21 साल सौरभ टीम में सबसे छोटे सदस्य हैं। दोनों सगे भाई हैं। कहते हैं, जब वे सिर्फ 13 या 14 साल के थे, तब उन्होंने यह काम शुरू कर दिया था। वे बुलंदशहर के अपने गांव से आकर बचाव अभियान में शामिल हुए। छोटा भाई सौरभ कहता है। हम कच्चे घर में रहते हैं। क्या हमें प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत पक्का घर मिल सकता है?

खतरनाक और प्रतिबंधित
भारत में रैट-होल खनन को एक अवैज्ञानिक और खतरनाक व्यवसाय के रूप में प्रतिबंधित किया गया है। लेकिन मेघालय जैसे राज्यों में पतली कोयला खानों में यह अब भी आजीविका के एकमात्र विकल्प है। कोयला तीन से चार फीट चौड़े छोटे-छोटे गड्ढे खोदकर निकाला जाता है, जिनमें कम उम्र के मजदूर जाकर कोयला निकालते हैं। यह प्रतिबंधित काम सिलक्यारा में 41 लोगों को जीवन देने वाला साबित हुआ।

 

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