केदारनाथ उपचुनाव: किसने किसको मदद पहुंचाई

त्रिलोचन भट्ट

केदारनाथ विधानसभा उप चुनाव का नतीजा अब सामने है। बीजेपी की आशा नौटियाल ने 5 हजार 623 वोट से जीत हासिल कर दी है। कांग्रेस की कुल उपलब्धि इतनी रही कि 2022 के विधानसभा चुनावों की तुलना में उसका प्रदर्शन कुछ सुधर गया और कांग्रेस उम्मीदवार मनोज रावत तीसरे से दूसरे स्थान पर आ गये। हालांकि शुरुआती दौर में वे इस बार भी तीसरे नंबर पर ही नजर आ रहे थे। इन चुनावों में मैं लगातार 11 दिन तक केदारनाथ क्षेत्र में था। हालांकि जीत-हार को लेकर मैं पूरी तरह कंफर्म नहीं था, लेकिन अब जब नतीजा सामने है लेख में सरल शब्दों में समझने की कोशिश करेंगे कि क्या हुआ केदारनाथ उप चुनाव में।

केदार घाटी के विभिन्न क्षेत्रों में मैंने हजारों लोगों से संपर्क किया और उन्हें टटोलने का प्रयास किया। जानने की कोशिश की कि लोग सरकार से कितने खुश हैं और कितने नाराज। ज्यादातर लोग सरकार से और खासकर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने नाखुश थे और बदलाव की बात कर रहे थे। लोगों से की गई बातचीत और तमाम दूसरे विश्लेषणों के बाद मेरा अनुमान था कि बीजेपी और कांग्रेस में से जीत जिसकी भी हो, लेकिन नेक टू नेक फाइट होगी, जीत-हार का मार्जिन एक हजार या उससे भी कम रहेगा। दोनों उम्मीदवारों को 20 हजार के आसपास वोट मिलेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जीत का मार्जिन साढ़े 5 हजार से ज्यादा पहुंच गया। आशा नौटियाल को 23 हजार 814 और मनोज रावत को 18 हजार 191 वोट मिले। इसमें शायद बैलेट पेपर से पड़े वोट शामिल नहीं हैं। आशा नौटियाल इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा वोट पाने वाली उम्मीदवार बन गई। हार-जीत का यह बड़ा अंतर मेरे लिए चौंकाने वाला है।

निर्दलीय उम्मीदवार त्रिभुवन चौहान को 9 हजार से ज्यादा वोट पड़ने की भी मुझे दूर-दूर तक कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। मेरा अनुमान था कि त्रिभुवन को 4 से 5 हजार वोट मिलेंगे। कुछ लोग कह रहे हैं कि बॉबी पंवार के कारण त्रिभुवन को वोट पड़े, लेकिन वास्तव में ये दावा 1 परसेंट भी सच नहीं है। बॉबी पंवार त्रिभुवन का प्रचार करने गये जरूर, लेकिन उनका इफेक्ट जीरो था। मैंने फाटा से गुप्तकाशी तक बॉबी पंवार का प्रचार देखाए त्रिभुवन के लिए। गुप्तकाशी में उनके भाषण भी सुने। उनके साथ करीब 15-20 गाड़ियों का काफिल था। ये काफिला जहां रुकता, वहां गाड़ियों में सवार लोग नीचे उतरते और बॉबी त्रिभुवन का भाषण सुनते। यानी कि भाषण सुनने वाली जनता ये अपने साथ ले गये थे। गुप्तकाशी त्रिभुवन का अपना बाजार हुआ, लेकिन वहां उनके साथ उनके गांव के कुछ महिलाओं के अलावा बाकी जनता वही थी, जो हर जगह उनके साथ चल रही थी और जगह जगह उनका भाषण सुन रही थी।

त्रिभुवन को 9 हजार से ज्यादा वोट पड़ना न तो उनकी लोकप्रियता है और न बॉबी पंवार फैक्टर। यह सीधे तौर पर बीजेपी आरएसएस का चुनाव मैनेजमेंट था। केदारनाथ घाटी में चुनाव का माहौल पूरी तरह से धामी के खिलाफ था। बीजेपी-आरएसएस को यह बात शुरू में ही समझ आ गई थी। ऐसे में उन्होंने सत्ता से नाराज जो वोटर अपने साथ नहीं हो सकते थे और कांग्रेस को वोट दे सकते थे, उन्हें त्रिभुवन के पक्ष में कर दिया। बॉबी पंवार को त्रिभुवन के पक्ष में चुनाव प्रचार में भेजना भी मेरी समझ से कहीं न कहीं इसी रणनीति का हिस्सा था, हालांकि बॉबी फैक्टर वहां काम नहीं आया। जो हो सकता था वह बीजेपी आरएसएस ने अपने दम पर कर दिया था।

मैं अब भी यह बात दावे के साथ कह सकता हूं कि त्रिभुवन चौहान के अपने वोट 5 हजार ही हैं। बाकी जो 4 हजार वोट उन्हें मिले हैं, वे कांग्रेस को मिल सकतेे थे, लेकिन बीजेपी आरएसएस के चुनाव मैनेजमेंट ने उन्हें त्रिभुवन की झोली में डाल दिया। आखिरी दो रातों में बीजेपी ने जो पराक्रम दिखाया, उसने एक से डेढ़ हजार कांग्रेसी वोट आशा नौटियाल को दिलवा दिये। इन दो रातों में बीजेपी ने खास वर्ग के मतदाताओं पर फोकस रखा। चर्चाएं तो यहां तक हैं कि इस वर्ग को ललचाने के लिए कई तरह की सेवाएं भी दी गई। हालांकि इन चर्चाओं में कितनी सच्चाई है, यह कहना मुश्किल है। फिर भी यह तो तय है कि बिना आग धुंवा नहीं उठता।

चुनाव हारने के बाद सत्ता समर्थक पत्रकार अपने पोर्टलों पर कांग्रेस की कमियां और बीजेपी की अच्छाइयां गिनाने में मशगूल हो गये हैं। कहा जा रहा है कांग्रेस ने नकारात्मक प्रचार किया, क्षेत्रवाद किया या फिर कांग्रेस में गुटबाजी थी। लेकिन वास्तव ये बातें सच नहीं हैं। गुटबाजी कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी के भीतर थी, जो कई जगहों पर साफ नजर आ रही थी। जातिवाद बीजेपी की ओर से खुलकर किया गया। सवर्णों के गांवों में कांग्रेस को अनुसूचित जाति वाली पार्टी कह कर वोट बटोरे गये।

कांग्रेस कहां पिछड़ गई, इस पर भी बात करने की जरूरत है। पहली गलती कांग्रेस ने यह की कि बीजेपी को उसी की पिच पर घेरने का प्रयास किया। कांग्रेस की ओर से केदारनाथ धाम दिल्ली ले जाए जाने को चुनाव अभियान के दौरान प्रमुखता दी गई। यह साबित करने का प्रयास किया गया कि बीजेपी खराब हिन्दू है। दरअसल हिन्दुत्व की पिच बीजेपी की अपनी पिच है। इस पर जीत पाना कांग्रेस के लिए संभव नहीं है। रोटी रोजगार के मुद्दे पर, केदारनाथ यात्रा में अव्यवस्था और सड़कों के किनारे लोगों की दुकानों खोमचों को तोड़े जाने के मुद्दे पर ही कांग्रेस डटी रहती तो ज्यादा ठीक होता। इसके अलावा जहां कहीं लोगों की छोटी-छोटी दुकानों पर बुलडोजर चला वहां कांग्रेस खड़ी नजर आती तो जो वोट बीजेपी ने त्रिभुवन को डलवाया वह आसानी से कांग्रेस के पाले में आ सकता था।

बाजवूद इसके कांग्रेस अच्छी तरह लड़ी, एकजुट होकर लड़ी। चुनाव अभियान में अच्छा मैनेजमेंट नजर आया। भाजपा के लिए कहना होगा कि चुनाव में आपने जीत हासिल कर ली। आपको बधाई। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इस क्षेत्र के लोगों के रोजी-रोजगार के सवाल खत्म हो गये हैं। बदरी केदार मंदिर समिति के अध्यक्ष चुनाव में बेशक कहीं नजर न आये हों, लेकिन चुनाव जीतते ही उनका एक बयान आया है। कह रहे हैं कि इस क्षेत्र के लोगों ने केदारनाथ मंदिर का सोना पीतल बनने की बात को झूठा साबित कर दिया है। अजेन्द्र अजय से मेरा कहना है कि जीत का मतलब ये नहीं कि भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा नहीं रहा। जीत का मतलब ये नहीं कि यात्रा में जो अव्यवस्थाएं हुई, उसके मामले में आप निर्दोष साबित हो चुके हो। जीत का मतलब ये भी नहीं कि अब अंकिता की हत्या का मसला कोई मसला नहीं रह गया है। जीत का मतलब यह नहीं कि लगातार सरकारी स्कूलों को बंद करने का आपका अपराध माफ हो गया है। जीत का अर्थ यह भी नहीं कि अस्पतालों का आपकी सरकार ने जो हाल कर रखा है, उसे लोगों ने छोड़ दिया है। आप जीत गये। समाज के लिए काम करने का ढोंग करने वाले और सड़कों पर आपके खिलाफ आंदोलन करने वाले कुछ लोगों को मोहरा बनाकर आपने जीत हासिल की है। जितने आपको वोट मिले हैं, उससे कई ज्यादा आपके खिलाफ चुनाव लड़ रहे लोगों को मिले हैं।

बेरोजगार युवाओं के आंदोलन को लीड कर रहे बॉबी पंवार के बारे में एक बात जरूर कहना चाहूंगा। सत्ता के खिलाफ सड़कों पर लड़ने वाले लोग यदि सत्ता को सबक सिखाने का मौका आने पर सत्ता के सेफ्टी वॉल्व बनने को कोशिश करने लगें तो ऐसे लोगों पर शक करने की जरूरत है। इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड क्रांति दल ने टिहरी में बॉबी पंवार को समर्थन दिया था। तो केदारनाथ उप चुनाव में बॉबी पंवार यूकेडी उम्मीदवार के साथ न जाकर त्रिभुवन चौहान के पक्ष में क्यों खड़े हो गये? भविष्य को संवारना है तो इस तरह के राजनीतिक प्रपंचों को अच्छी तरह समझना होगा। चुनाव लड़ने के लिए ऐसे लोगों को फंडिंग कहां से होती है, ये ंभी समझने की जरूरत है।

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