उत्तराखंड का इतिहास: प्राचीन काल से गढ़वाल साम्राज्य के स्थापना तक
(एक)
-उत्तराखण्ड का उल्लेख सबसे पहले ऋग्वेद में मिलता है, जहां इस क्षेत्र को देवभूमि या ऋषियों की पुण्य भूमि कहा गया है।
-ऐतरेव ब्राह्मण में इसे उत्तर-कुरु कहा गया है।
-स्कंदपुराण में इस क्षेत्र के दो भाग मानस खंड और केदारखंड वर्णित किये गये हैं।
-मानसखंड वर्तमान का कुमाऊं क्षेत्र और केदारखंड वर्तमान का गढ़वाल क्षेत्र है।
– मानसखंड और केदारखंड का मिलाकर इस क्षेत्र को खसदेश, ब्रह्मपुर और उत्तर-खंड नाम दिया गया है।
-पालि भाषा में लिखे गये बौद्ध ग्रंथों में इस क्षेत्र को हिमवंत कहा गया है।
-महाभारत में वर्तमान गढ़वाल क्षेत्र को बद्रिकाश्रम, तपोभूमि, स्वर्गाश्रम कहा गया है, जबकि वर्तमान कुमाऊं क्षेत्र को कूर्मांचल कहा गया है।
(दो)
-प्राचीन काल में गढ़वाल क्षेत्र में दो विद्यापीठ थे- बद्रिकाश्रम और कण्वाश्रम।
-बद्रिकाश्रम बदरीनाथ के पास कहीं था। इसी के नाम पर संभवतः उत्तराखंड का बद्रिकाश्रम कहा गया।
-कण्वाश्रम मालिनी नदी के किनारे है, जो राजा दुष्यंत और शकुन्तला की प्रेम कहानी के लिए प्रसिद्व है।
-इसी आश्रम में उनके बेटे भरत का जन्म हुआ, जो बचपन में शेर के बच्चे के दांत गिनता था, उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा।
-पांडव-कौरव इसी राजा भरत के वंशज थे।
– संस्कृत कवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ नाटक की रचना इसी स्थान पर की थी।
– वर्तमान में यह स्थान पौड़ी जनपद में कोटद्वार के निकट चौकाधार नाम स्थान है।
(तीन)
– देहरादून जनपद के कालसी नामक स्थान पर सम्राट अशोककालीन शिलालेख मिला है।
– इसमें अशोक ने लिखा है मैंने सब जगहों में मनुष्यों और पशुओं की चिकित्सा की व्यवस्था कर दी है।
-शिलालेख बताता है कि अशोक की सीमा उत्तर में इस स्थान तक थी।
-यह क्षेत्र उस समय मौर्य साम्राज्य के अधीन था।
-शिलालेख में इस क्षेत्र का अपरान्त कहा गया है और यहां के लोगांे को पुलिंद नाम दिया गया है।
(चार)
-उत्तराखंड में शासन करने वाली पहली राजनीतिक शक्ति कुणिंद वंश थी।
– संभवतः कुणिंद वंश मौर्य साम्राज्य के अधीन था।
– यह भी संभव है कि कालसी के शिलालेख के पुलिंद ही आगे चलकर कुणिंद बन गये हों।
-कुणिंद वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राज अमोघभूति था।
-अमोघभूति ने चांदी और तांबे के सिक्के चलवाये थे।
-इन सिक्कों पर मृग और देवी के चित्र उकेरे गये थे।
-कुणिंदों के बाद इस क्षेत्र पर कुछ दिनों तक शकों से शासन किया।
-उन्होंने शक संवत कलैंडर चलाया। उन्होंने कई जगहों पर सूर्य मंदिर भी बनवाये।
– अल्मोड़ा के पास स्थित कटारमल सूर्य मंदिर इन सबसे में सर्वाधिरक प्रसिद्व है।
-शकों के बाद थोड़े-थोड़े समय के लिए कुशाण, नाग और मौरखि वंश ने भी यहां शासन किया।
(पांच)
-बाद में यह सम्पूर्ण क्षेत्र वर्द्धन वंश के राज हर्षवर्द्धन के अधीन आ गया।
-हर्षवर्द्धन के काल में ही चीनी यात्री ह्नेनसांग उत्तराखंड आया।
-ह्नेनसांग ने अपनी पुस्तक ‘सीयूकी’ में उत्तराखंड को पोलि-हिमो-पुलो और हरिद्वार को मायूलो कहा।
-ह्नेनसांग के अनुसार उस समय इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का बोलबाला था।
-वाणभट्ट ने ‘हर्षचरित’ में उत्तराखंड का ब्रह्मपुर और हरिद्वार को गयूरपुर कहा।
– उत्तराखंड के ब्रह्मपुर और हरिद्वार के गयूरपुर होने की पुष्टि अंग्रेज इतिहासकार कर्निंघम ने भी की।
(छह)
-648 ई॰ में हर्षवर्द्धन की मृत्यु के बाद यह क्षेत्र कई छोटे-छोटे रजवाड़ों में बंट गया।
-लगभग 700 ई॰ में कार्तिकेय वंश की स्थापना हुई और इस वंश से सभी रजवाड़ों को इकट्ठा किया।
-इस राजवंश ने जोशीमठ के पास अथवा जोशीमठ में ही कार्तिकेयपुर नाम से अपनी राजधानी बनाई।
-कार्तिकेय राजवंश ने 700 से 1013 ई॰ तक जोशीमठ से सम्पूर्ण गढ़वाल क्षेत्र पर शासन किया।
-शासन व्यवस्था को सुदृढ़ रखने के लिए इस वंश ने पूरे क्षेत्र में अपने 52 प्रतिनिधि नियुक्त किये।
– एक धारणा के अनुसा इनका पदनाम नारसिंह था और ये बाद में इस क्षेत्र में लोकदेवता के रूप में पूजित हुए।
– इसी दौरान गढ़वाल क्षेत्र में कुछ अन्य राजवंशों का उदय होने लगा।
-सुरक्षा की दृष्टि से कार्तिकेय वंश ने जोशीमठ की गद्दी अपने प्रमुख और जनता में लोकप्रिंय नारसिंह को सौंप दी।
-कार्तिकेय वंश ने अपनी नई राजधानी कुमाऊं क्षेत्र के अल्मोड़ा और बैजनाथ के बीच कत्यूर घाटी में स्थापित की।
-कार्तिकेय वंश की राजभाषा संस्कृत थी, जबकि उस समय बोलचाल की भाषा पालि थी।
(सात)
-कार्तिकेय वंश के शासनकाल में ही आदि शंकराचार्य उत्तराखंड क्षेत्र में आये।
– उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रभाव को खत्म किया।
-उन्होंने इस क्षेत्र में बदरीनाथ और केदारनाथ सहित कई मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया।
-मान्यता है कि इससे पहले बदरीनाथ एक बौद्ध मठ था, जिसे सम्राट अशोक ने बनवाया था।
-महापंडित नाम से प्रख्यात लेखक राहुल सांकृत्यायन ने भी बदरीनाथ में विष्णु प्रतिमा के बौद्ध प्रतिमा होने की बात कही है।
-शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में चार मठ स्थापित किये। इनमें बद्रिकाश्रम भी शामिल है।
– 820 ई॰ में केदारनाथ में शंकराचार्य की मृत्यु हुई।
-केदारनाथ में उनकी समाधि 2013 ई॰ की आपदा के दौरान ध्वस्त हुई।
(आठ)
-कार्तिकेय वंश जोशीमठ से कत्यूरघाटी जाकर कुमाऊं पर शासन करने लगा।
-यही वंश कुमाऊं का पहला राजवंश माना जाता है।
-कुमाऊं क्षेत्र में इस वंश का प्रथम शासक वसंत देव था।
-वसंत देव ने परमभद्वारक महाराजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की थी।
-कार्तिकेय वंश के बाद इसी वंश की एक शाखा कत्यूरी वंश ने कुमाऊं पर शासन किया।
– जल्दी की कत्यूरी वंश तीन हिस्सों में विभाजित हो गया।
-इनमें रजवार वंश ने असकोट, मल्ल वंश ने डोती और आसंतिदेव के नेतृत्व में कत्यूर वंश ने कत्यूर घाटी में शासन किया।
-इसी दौरान 1191 ई॰ में पश्चिमी नेपाल के राजा अशोक चल्ल ने कत्यूरी राजा पर आक्रमण किया और कुमाऊं के कुछ हिस्सों पर अधिकार कर लिया।
-कत्यूरी वंश के अंतिम शासक ब्रह्मदेव था, जिसे बीरम देव या बीरदेव भी कहा गया है।
-बीरम देव के समय ही 1398 ई॰ में मुगल शासक तैमूर लंग ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया।
-हरिद्वार में तैमूर और बीरम की सेना के बीच युद्ध हुआ बीरम देव मारा गया।
-इसी के साथ कत्यूरी वंश का अंत हो गया।
(नौ)
-कत्यूरी वंश के दौरान ही कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों में चंद राजवंश ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिये थे।
-1398 ई॰ में बीरम देव की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण कुमाऊं क्षेत्र पर चंद वंश ने अपना शासन स्थापित कर दिया।
-चंद वंश का पहला राजा थोहरचंद था। उसकी राजधानी चम्पावत थी।
-यह एक गौभक्त राजवंश था। इनका राजचिन्ह भी गाय थी।
-इस वंश के एक राजा भीष्म चंद ने राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा ले जाने की ठानी।
-भीष्म चंद ने अल्मोड़ा मंे एक किला भी बनाया, जिसे खगमरा किला कहा गया।
-यह किला 1560 ई॰ में बनकर तैयार हुआ, लेकिन ठीक इसी समय भीष्म चंद की मृत्यु हो गई।
-1593 ई॰ में बालो कल्याण चंद राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा ले गया।
-बालो कल्याण चंद ने अल्मोड़ा में लाल मंडी का किला और मल्ला महल किला बनवाया।
-चंद राजाओं के मुगल सम्राटों से अच्छे संबंध थे।
-चंद राजाओं के मुगल शासकों से अच्छे संबंध थे।
-1790 ई॰ में गोरखाओं ने कुमाऊं पर दूसरा आक्रमण किया।
– इस युद्ध में चंद वंश के अंतिम राजा महेन्द्र चंद की हार हुई। और इस तरह पूरा कुमाऊं क्षेत्र गोरखाओं के अधीन हो गया।
(दस)
-9वीं शताब्दी तक गढ़वाल क्षेत्र 52 छोटे-छोटे रजवाड़ों में बंट चुका था।
-सभी राजाओं के अपने-अपने गढ़ यानी किले थे।
-इनमें एक गढ़ चांदपुर गढ़ भी था। 888 ई॰ में भानु प्रताप चांदपुर गढ़ का राजा था।
-इस दौरान गुजरात का एक राजकुमार कनकपाल चांदपुर गढ़ आया और भानु प्रताप की पुत्री के साथ विवाह कर यहीं बस गया।
-इस तरह कनकपाल ने 888 ई॰ में चांदपुर गढ़ में परमार या पंवार वंश की स्थापना की।
-परमार वंश का 37वंा राजा अजयपाल सर्वाधिक शक्तिशाली था।
-अजयपाल ने 1515 ई. में इस क्षेत्र के सभी छोटे-छोटे रजवाड़ों को जीत लिया और पूरे क्षेत्र पर एकछत्र राज्य स्थापित कर दिया।
-अजयपाल ने अपने इस नये और बड़े साम्राज्य के नाम गढ़वाल रखा।
-उसने देवलगढ़ में अपनी राजधानी बनाई।
-1517 ई॰ में अजयपाल ने राजधानी देवलगढ़ से श्रीनगर स्थापित कर दी।
-गढ़वाल के परमार शासकों के दिल्ली के मुगल शासकों के साथ अच्छे संबंध थे।
-इस वंश के राजा बलभद्र को दिल्ली के लोदी शासक बहलोल लोदी ने शाह की उपाधि दी थी।
-इसके वंश के सभी राजा अपने नाम के साथ शाह की उपाधि लगाते रहे।
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt
-1636 ई. में परमार शासक महीपति शाह की मृत्यु के बाद उसके नाबालिग पुत्र पृथ्वीपति शाह को गद्दी पर बिठाया गया।
– अल्पवयस्क होने के कारण रानी कर्णावती उसकी संरक्षिका बनाई गई।
-इसी दौरान मुगल सम्राट शाहजहां के सेनापति मवाजुद खां ने दून घाटी पर आक्रमण कर दिया।
-रानी कर्णावती की सूझबूझ से हमला नाकाम हुआ और कुछ मुगल सैनिक पकड़े गये।
-रानी कर्णावती के आदेश इन सैनिकों के नाक काट दिये गये।
-इसके बाद कर्णावती नाक काटी रानी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt