अनुच्छेद 370 और उसका इतिहास

त्रिलोचन भट्ट 

 

सोशल मीडिया पर अनुच्छेद 370 को लेकर कल से बहस छिडी़ हुई है। कुछ लोग सीजेआई पर टिप्पणियां कर रहे हैं। इस लेख  में मैं 370 को लेकर कई महत्वपूर्ण जानकारियां आपके साथ साझा करूंगा। बात धारा 371 की भी होगी और उत्तराखंड की भी जहां इन दिनों मूल निवास और भूकानून का मुद्दा गरम है और गाहे-बगाहे अनुच्छेद 371 लागू करने की मांग की जा रही है।

 

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के कुछ प्रावधानों को हटाने के केन्द्र सरकार के फैसले को सही ठहराया। यह खबर आते ही चर्चा गरम हो गई। कुछ लोग सीजेआई पर व्यक्तिगत टिप्पणियां करने लगे। मैंने एक टीवी डिबेट में कांग्रेस के एक प्रवक्ता को कहते सुना कि 370 के कई प्रावधान तो पिछली सरकारों ने ही हटा दिये थे और अनुच्छेद 370 अब भी लागू है।

इसके बाद मैंने इस अनुच्छेद के बारे में विस्तार से जानने का प्रयास किया तो कई ऐसी बातें पता चली जो मुझे नहीं मालूम थी। हो सकता है आपको मालूम हों। 370 को लेकर यह बात खूब प्रचारित की जाती है कि कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए धारा 370 नहीं हटाना चाहती थी। मोदी सरकार ने इसे हटाकर बड़ा क्रांतिकारी कदम उठाया है। लेकिन सच्चाई जानने के लिए ये जानकारियां हमारे पास जरूर होनी चाहिए।

अनुच्छेद 370 का प्रावधान जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करने के लिए 1950 में किया गया था। राजा हरिसिंह के साथ हुए एक समझौते के बाद यह प्रावधान किया गया था। इस समझौते के अनुसार जम्मू कश्मीर में रक्षा, संचार और विदेशी मामले केन्द्र सरकार के नियंत्रण में रहने थे, बाकी सभी अधिकार वहां की सरकार के पास। जम्मू कश्मीर में किसी भी तरह केे प्रशासनिक या कानूनी बदलाव वहां की संविधान सभा की संस्तुति के बाद ही किये जा सकते थे। केन्द्र सरकार ने जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में 1951 में संविधान सभा का गठन किया, लेकिन 1956 में उसे भंग कर दिया गया। उसके बाद वहां की विधान सभा की संस्तुति को ही संविधान सभा की संस्तुति माना जाने लगा और एक-एक कर कई बदलाव कर दिये गये। एक तरह से अनुच्छेद 370 को कमजोर करने के प्रयास किये गये और उसे लुंज-पुंज कर दिया गया।

सबसे पहले 1954 में जम्मू कश्मीर में केन्द्र की आबकारी और डाक-तार नीति लागू कर दी गई। 1958 में वहां भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के अधिकारियों की नियुक्ति की शुरुआत की गई। 1959 में जनगणना नीति लागू हुई। 1960 से जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट के फैसलों के खिलाफ होने वाली अपीलों को सुप्रीम कोर्ट में सुना जाने लगा। इससे आगे बढं़े तो 1964 में जम्मू-कश्मीर राज्य को अनुच्छेद 356 और 357 के अधीन लाया गया। इन अनुच्छेदों के अनुसार जरूरत पड़ने पर किसी भी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। यह सब नेहरू के दौर में हो चुका था।

1965 में जम्मू कश्मीर में केन्द्रीय कानून लागू कर दिये गये। 1966 में वहां लोकसभा चुनाव करवाये गये। इससे पहले संसद में जम्मू कश्मीर का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता था। इसी वर्ष जम्मू कश्मीर में प्रधानमंत्री का पद खत्म कर उसकी जगह मुख्यमंत्री पद सृजित किया गया। ये सारे कदम अनुच्छेद 370 को कमजोर करने और जम्मू कश्मीर को पूरी तरह भारत के नियंत्रण में लाने के प्रयास ही थे। उसके बाद भी इस राज्य में भारत का हस्तक्षेप बढ़ाने का प्रयास लगातार होते रहे।

अब आते हैं अनुच्छेद 370 हटाने का दावा करने वाले भाजपा सरकार के प्रयासों पर। 5 अगस्त 2019 को केन्द्र की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने जम्मू कश्मीर से इस अनुच्छेद को हटाने का प्रस्ताव संसद में पारित करवा दिया। पूरे देश में प्रचार किया गया कि अब हम कश्मीर में प्लॉट खरीद सकते हैं। उत्तराखंड जैसे राज्य के लोग जो यहां भूकानून में किये गये बदलाव से नाराज हैं और मूल निवास का मुद्दा उठा रहे हैं, वे भी 370 हटाये जाने पर खुशी मनाते नजर आये। लेकिन, असलियत ये है कि अनुच्छेद 370 के भाग दो और तीन के प्रावधानों को ही हटाया गया है। भाग एक के साथ अनुच्छेद 370 अब भी जम्मू-कश्मीर में लागू है।

इन जानकारियों को ध्यान में रखकर सोचंे तो मुझे नहीं लगता कि 370 के कुछ प्रावधानों को हटाने को मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धि कहा जाना चाहिए। न ही मुझे यह लगता है कि इस मामले में दिये गये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर इस तरह की तीखी टिप्पणियां होनी चाहिए, जैसी हो रही हैं। हालांकि जम्मू कश्मीर के बारे में यह निर्णय लेने से पहले सरकार ने वहां की लोगों की राय क्यों नहीं ली, केवल राज्यपाल की सिफारिश पर यह फैसला कैसे ले लिया, यह बात सुप्रीम कोर्ट में पूछी जानी चाहिए थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसके उलट टिप्पणी की और कहा कि राज्य सरकार की मंजूरी लेने की जरूरत नहीं थी। दरअसल उस दौरान वहां सरकार थी ही नहीं। आज भी नहीं है। मैं यह भी मानता हूं कि पर्वतीय राज्यों की भौगोलिक स्थिति और उनकी समस्याओं को देखते हुए उन्हें कुछ विशेषाधिकार अवश्य मिलने चाहिए। जम्मू कश्मीर को इन विशेषाधिकारों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। केन्द्र सरकार ने दावा किया था कि 370 हटाने के बाद कश्मीर में आतंकवाद खत्म हो जाएगा। सवाल पूछा जाना चाहिए कि 5 वर्षों में अब तक ऐसा क्यों नहीं हुआ? सवाल जम्मू कश्मीर में चुनाव करवाने और वहां के लोगों के नागरिक अधिकारों की बहाली को लेकर भी पूछा जाना चाहिए।

अब जरा 371 की भी बात कर लें। जम्मू कश्मीर से 370 हटाने पर तालियां बजाने वालों के लिए खासकर। देश के 12 राज्यों को अनुच्छेद 371 के तहत विशेष अधिकार दिये गये हैं। यहां मैं उत्तराखंड का जिक्र करना चाहूंगा। इस राज्य में इन दिनों भूकानून और मूल निवास को लेकर बहस छिड़ी हुई है। आंदोलन भी हो रहे हैं। अनुच्छेद 371 लागू करने की बात भी हो रही है। हालांकि उत्तराखंड में होने वाले आंदोलनों पर कुछ सतर्कता बरतने की जरूरत होती है। यहां कई ऐसी टीम हैं जो सरकार के कहने पर सरकार के खिलाफ आंदोलन करती हैं। इसका फायदा यह होता है कि जब फैसले का वक्त आता है तो सरकार इन तथाकथित आंदोलनकारियों के माध्यम से अपनी बात मनवा लेती है। बहरहाल।

जरा देखते हैं देश के किन राज्यों में अनुच्छेद 371 लागू है। 1950 में जम्मू कश्मीर में 370 के साथ ही गुजरात और महाराष्ट्र में अनुच्छेद 371 लागू कर दिया गया था। बाद में संविधान संशोधनों के माध्यम से नागालैंड में अनुच्छेद 371 ए, असम में 371 बी, मणिपुर मे 371 सी, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में 371 डी और ई, सिक्किम में 371 एफ, मिजोरम में 371 जी, अरुणाचल प्रदेश में 371 एच, कर्नाटक में 371 जे लागू किया गया। इन अनुच्छेदों के तहत इन राज्यों को कुछ विशेषाधिकार दिये गये हैं। विषम भौगौलिक और परिस्थितियों और अलग सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश वाले राज्यों के लिए ऐसी व्यवस्था का समर्थन किया जाना चाहिए। किया भी जाता है। फिर कश्मीर से 370 हटाने पर इतनी खुशियां क्यों मनाई जानी चाहिए?

हमें उत्तराखंड सहित सभी पर्वतीय राज्यों को विशेषाधिकार देने की मांग करनी चाहिए। उत्तराखंड में मूल निवास और भूकानून को लेकर चल रहे आंदोलनों का भी समर्थन करना होगा। इस राज्य की विषम परिस्थितियों के कारण ये मांगें पूरी तरह जायज हैं। लेकिन इन मुद्दों की आड़ में देश के संविधान का उल्लंघन कर क्षेत्रवाद को हवा देने वाली ताकतों का भी हमें पुरजोर विरोध करना चाहिए।

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