अस्कोट-आराकोट यात्रा: गोपेश्वर से बणद्वारा तक
त्रिलोचन भट्ट
ब्राजील की कवयित्री मार्था मेरिडोस की एक कविता है यू स्टार्ट डाइंग स्लोली…. कुछ लोग इसे पाब्लो नेरुदा की कविता कहते हैं। कविता की शुरुआती पंक्तियांे का हिन्दी तजुर्मा इस तरह है-
आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं अगर आप नहीं करते कोई यात्रा
पढ़ते नहीं कोई किताब। सुनते नहीं जीवन की ध्वनियां। करते नहीं किसी की तारीफ।
आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं
चलिये हम धीरे-धीरे मरना छोड़ देते हैं और चलते हैं एक यात्रा पर। तय मानिये कि इस यात्रा के दौरान आपको जीवन की ध्वनियां सुनने के कई अवसर मिलेंगे और दूसरों की तारीफ करने के भी। कविता में बताये गये मौत के कई अन्य कारणों से भी आप मुक्त हो पाएंगे। मसलन- आप आदतों की गुलामी से छुटकारा पा लेंगे, अजनबी अनजान लोगों से बात करने लगेंगे अपने आवेगों और उनसे जुड़ी अशांत भावनाओं को महसूस करने लगेंगे। तो चलते हैं 1150 किलोमीटर लंबी एक पैदल यात्रा पर। यात्रा का नाम है, अस्कोट आराकोट अभियान। यह यात्रा 1974 से हर 10वें वर्ष उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में होती है।
हर बार की तरह ही इस बार भी अस्कोट आराकोट यात्रा शुरू हुई 25 मई को पिथौरागढ़ जिले के सीमान्त गांव पांगू से यह नेपाल का बॉर्डर है। पहले दिन से यात्रा में शामिल होने का मन था, लेकिन आर्थिक तंगी रास्ता रोके खड़ी थी। किसी तरह व्यवस्था करके मैं इस यात्रा में 16 जून को शामिल हो पाया, जब यात्रा अपने 23 पड़ाव पार कर चुकी थी। इनमें मुनस्यारी जैसा खूबसूरत इलाका भी शामिल था तो नामिक जैसा अंतिम छोर का गांव भी। कई खूबसूरत बुग्याल भी तो कुंवारी पास भी, हमनी, घेस और आली वेदनी बुग्याल भी। पता नहीं मैं इन दुर्गम इलाकों को पार कर पाता या नहीं, लेकिन न जा पाने की टीस बनी रही।
16 जून को सुबह 4 बजे मैं और डॉक्टर शिवानी पांडेय जिस शेयरिंग कार से रवाना हुए इत्तेफाक से उसी कार से डॉक्टर नवीन जुयाल भी जा रहे थे। डॉक्टर जुयाल जैसे प्रख्यात भूगर्भ विज्ञानी का साथ मिल गया तो सफर सुहाना और ज्ञानार्जन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होना ही था।
हम तीनों दोपहर को गोपेश्वर पहुंचे तो बताया गया कि यात्रा दल बछेर गांव रवाना हो गया है। बछेर में पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट जी का आश्रम है। वहीं यात्रियों के लिए दिन के भोजन की भी व्यवस्था थी। हम गोपेश्वर मंदिर मार्ग स्थित भट्ट जी की संस्था दसोली ग्राम स्वराज मंडल के ऑफिस पहुंच गये, जहां रहने की व्यवस्था थी। अभी सुस्ता भी नहीं पाये थे कि भट्ट जी का पोता गौरव कार लेकर पहुंच गया और हम तीनों भी बछेर रवाना हो गये। बछेर में यात्रा संस्मरणों के साथ पहाड़ के ज्वलंत मुद्दों पर बात हुई और साथ में दाल भात।
देर शाम हम लोग गोपेश्वर पहुंचे। दसोली ग्राम स्वराज मंडल के परिसर में फिर से सभा हुई। कई यात्रियों ने अपने अनुभव साझा किये। हमंे गोपेश्वर में देहरादून जैसी गर्मी महसूस हुई। खुद गोपेश्वर वाले बता रहे थे कि ऐसी गर्मी पहले कभी नहीं पड़ी।
17 जून की सुबह का नाश्ता गोपेश्वर में तैनात एक सरकारी अधिकारी के सौजन्य से था। भरपेट नाश्ता करने के बाद करीब 30 सदस्यों का यात्री दल गोपेश्वर से दो हिस्सों में रवाना हुआ। पहला दल गजेन्द्र रौतेला के नेतृत्व में मोटर मार्ग से होता हुआ रवाना हुआ तो दूसरा दल शेखर पाठक जी के नेतृत्व में दूसरे रास्ते से। मैं दूसरे दल में शामिल था। गोपेश्वर से करीब 3 किमी नीचे उतर कर हमने बालखिला नदी पार की और पहुंच गये सिरोखोमा गांव। यह भोटिया जनजाति के लोगों का गांव है। गांव के ज्यादातर लोग इन दिनों माणा में हैं। गांव में सिर्फ एक महिला मिली। भोटिया जनजाति की मौजूदा हालात पर उनसे चर्चा हुई तो पता चला कि इस जनजाति के लोग भी अब तेजी से अपने परंपरागत काम धंधों, पशुपालन और रीति-रिवाजों से किनारा कर रहे हैं, यहां तक कि अपने परंपरागत गांवों से भी।
सिरोखोमा से हम नई खोदी गई सड़क से होकर निकल पड़े बैरांगणा की तरफ, जहां हमें दूसरे दल से मिलना था। यह मेरे लिए पहली चढ़ाई थी। पीठ पर बैग लादे पुराने यात्री अपनी निर्धारित चाल से आगे बढ़ रहे थे, लेकिन मेरे लिए यह पहली चढ़ाई कुछ कठिन महसूस हो रही थी। जहां कहीं हम लोग कुछ देर सुस्ताने के लिए रुकते मैं वहां से सबसे आगे चलता, लेकिन कुछ ही देर में मैं सबसे पीछे होता। करीब 7 किमी चलकर हम बैरांगना पहुंच ही गये। पहला दल पहले से ही बैरांगना पहुंच चुका था और ग्रामीणों के साथ एक बैठक हो रही थी। मैं फिर से पीछे न रह जाऊं इसलिए मैं बैरांगना में नहीं रुका और गोपेश्वर-चोपता मोटर मार्ग पर आगे बढ़ता चला गया। हमें अभी 4 किमी दूर मंडल पहुंचना था और वहां से फिर 4 किमी बणद्वारा गांव।
यहां हम चार लोगों ने कुछ चोरी की। एक सवारी जीप पर बैठकर चार किमी की दूरी तय की और मंडल पहुंचकर एक ढाबे पर दिन का खाना खाया। दल के बाकी सदस्य करीब 2 घंटे बाद यहां पहुंचे। मंडल स्थित जड़ी-बूटी केन्द्र में केन्द्र के प्रभारी डॉ. सीपी कुनियाल के सानिध्य में एक सभा हुई। डॉ. कुनियाल ने इस संस्थान द्वारा किये जा रहे कार्यों के बारे में बताया। हमें पता चला कि जड़ी बूटी निदेशालय और इस संस्थान में स्टाफ की कमी के चलते काम प्रॉपर तरीके से नहीं हो पा रहे हैं। यहां तक लंबे समय से एक स्थाई निदेशक तक की नियुक्ति नहंी हो पाई है। संस्थान की ओर से किसानों को कई तरह से मदद करने, बीज, पौध आदि देने और फसलों में लगने वाली बीमारियों का उपचार करने का जिम्मा दिया गया है, लेकिन स्टाफ की कमी के कारण ये काम ठीक से नहीं हो पा रहे हैं। बहरहाल… मंडल से दल के कुछ सदस्यों ने वापस गोपेश्वर की राह पकड़ी 32 लोग पैदल बणद्वारा गांव की ओर चल पड़े।
बणद्वारा जाते हुए पहली बार हमें बारिश की तेज बौछार का सामना करना पड़ा, हालांकि यह कुछ की देर की बात थी। हम बणद्वारा ग्राम सभा के कांडा तोक पहुंचे, जहां सर्वाेदयी कार्यकर्ता दरवान सिंह नेगी और कुछ अन्य नेगी परिवार रहते हैं। इन परिवारों का आतिथ्य सत्कार और प्रेम अभिभूत कर गया। इन परिवारों का हर सदस्य मानों हमारी सेवा में जुट गया। चाय-पकौड़ी, गपशप उसके बाद सर्वधर्म प्रार्थना सभा, कुछ विषयों पर मंथन और फिर रात का खाना।
बणद्वारा आकर यह गलतफहमी दूर हुई कि पहाड़ के लोग उद्यमशील नहीं हैं। गांव के हर परिवार ने न सिर्फ सब्जी उगाई है, बल्कि नींबू, नारंगी आदि की पौध भी तैयार की हैं, जो बरसात में बेची जाएंगी। हर परिवार ने कीवी की खेती की है, जो सीजन में अच्छा बिजनेस दे रही है। लगभग सभी परिवारों के तालाब हैं, जिनमें मछली पालन हो रहा है। लेकिन संविधान में प्रदत्त दो प्रमुख अधिकारों शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकार ने इस गांव के लोग भी महरूम हैं। स्कूल दूर होने के कारण लोगों को गोपेश्वर शिफ्ट होना पड़ रहा है। प्राइमरी स्कूल कांडा से 2 किमी है तो इंटर कॉलेज करीब 8 किमी दूर बैरांगना। गांव तक कच्ची सड़क बन गई है, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव बना हुआ है। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बैरांगना में है, जहां सुविधाएं पहाड़ के तमाम अस्पतालों की तरह ही हैं। मरीजों को अक्सर गोपेश्वर जिला अस्पताल रेफर कर दिया जाता है और वहां से श्रीनगर, फिर देहरादून। यह पूरे पहाड़ की कहानी है।
यात्रा वृतांत जारी है