त्रिलोचन भट्ट
हिन्दुओं के चार प्रमुख धामों में से एक बदरीनाथ। वही बदरीनाथ जो उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित है। जिसकी प्राकृतिक संरचना और भौगोलिक स्थिति इतनी संवेदनशील है कि हमारे पुरखों ने यहां शंख बजाना भी वर्जित कर दिया था। अब यहां एक साथ कई-कई पोकलैंड और जेसीबी मशीने चल रही हैं। पौराणिक बदरीनाथ को नष्ट करके उसकी जगह पर एक मिनी स्मार्ट सिटी या स्मार्ट धाम बनाने की सनक के कारण। ये वीडियो मैंने अब से करीब डेढ़ साल पहले सितंबर 2023 में लिए थे, जब मैं इस तथाकथित मास्टर प्लान की असलियत देखने वहां गया था। चमोली के माणा में आये एवलांच के बाद जरूरी हो गया है कि हम बदरीनाथ की सुरक्षा पर भी कुछ सवाल करें, क्योंकि बदरीनाथ को इस मास्टर प्लान ने बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंचा दिया है।
चमोली जिले के माणा में आये एवलांच में बचाव अभियान खत्म होने की सरकारी घोषणा हो गई है। 8 लोगों की मौत हुई है, लेकिन इन मौतों से ज्यादा जिक्र इस बात का है कि 46 लोगों की बचाया गया। इन 46 में से 22 ने खुद ही खुद को बचा लिया था, वे पीछे-पीेछे आ रहे बर्फीले तूफान के आगे-आगे भाग रहे थे और आखिरकार सुरक्षित जगह पर पहुंच गये थे। हम सेना को सलाम करते हैं कि उसने 24 लोगों को सुरक्षित बचा लिया। लेकिन सवाल यह है कि इन मजदूरों की जान खतरे में डालने और 8 मजदूरों की मौत के लिए कौन जिम्मेदार है?
मैं बात बोलेगी के पिछले दो वीडियों में भी अलग अलग तरह से सवाल उठा चुका हूं और आज फिर सवाल उठा रहा हूं। कहा जा रहा है कि इस घटना के लिए किसी व्यक्ति या किसी संस्था को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। क्यों भाई? मुझे जोशीमठ के मित्र अतुल सती से पता चला है कि एवलांच की आशंका से पर्यटन स्थल औली खाली करवाया जा रहा है, जबकि औली में एवलांच जैसी कोई परिस्थितियां न पहले थी और न अब हैं। यदि औली में एवलांच आया भी तो सिर्फ औली ही नहीं उसके ठीक नीचे जोशीमठ का एक बड़ा हिस्सा भी प्रभावित होगा। यानी कि माणा के अपने फेलियोर को कवर करने के लिए आप औली खाली करने पर तुले हुए हैं। दो हजार या उससे ज्यादा ऊंचाई वाली जगहों पर पर्यटकों की आवाजाही रोकने के भी आदेश दिये गये हैं।
अब सवाल ये कि 24 सौ मीटर से ज्यादा ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तीन दिन पहले ही भारी बर्फबारी और एवलांच का पूर्वानुमान जारी किया गया था और इसी आधार पर 27 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मुखबा दौरा कैंसिल किया गया था, तो फिर करीब 4 हजार मीटर की ऊंचाई वाले माणा में मजदूरों को क्यों काम पर लगाया गया था? जबकि मुखबा की ऊंचाई तो सिर्फ 27 सौ मीटर के आसपास है और वहां एवलांच जैसा कोई खतरा भी नहीं होता। इतनी ज्यादा ऊंचाई पर मजदूरों को काम पर रखे जाने का तर्क है दिया जा रहा है कि यह बॉर्डर इलाका होने के कारण यह सड़क हमेशा खुली रहनी चाहिए। पहली बात तो यह कि ये तर्क पूरी तरह से गलत है। क्योंकि यहां इतनी बर्फ गिरती है कि सड़क मार्ग का इस सीजन में किसी भी हालत में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
मुझे एक तस्वीर याद आ रही है। जब केदारनाथ आपदा के बाद एक बहुचर्चित कर्नल साहब के नेतृत्व में वहां पुनर्निर्माण हो रहा है। सर्दियों में बर्फबारी के दौरान एक मशीन से बर्फ हटाई जा रही थी। समझ रहे हैं न आप इसका मतलब क्या होता है? वो कहानी सुनी है जब बंदर राजा बन जाता है। एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर उछलकूद करता है, फिर कहता है नतीजा बेशक न निकला हो, लेकिन मैंने दौड़भाग में कोई कमी नहीं की। यही हाल है। 4000 हजार मीटर की ऊंचाई पर बर्फबारी के दौरान बर्फ हटाने का नतीजा तो कुछ नहीं निकलता है, लेकिन लगता है कि काम लगातार हो रहा है जब यह बात साबित हो जाए कि काम लगातार हो रहा है, तो बिना काम देखे अलग बजट मिलता है।
दूसरा सवाल इतनी ऊंचाई पर, इतनी ठंड में, मजदूरों को टिन केे कंटेनर में क्यों रखा गया था? ये कंटेनर इतनी ऊंचाई पर क्यों बनाये गये थे कि बर्फीला तूफान आते ही 60 से 70 मीटर नीचे गिर गये, जैसा कि कई मजदूरों ने बताया है। क्या इन मजदूरों के लिए ठीक-ठीक अस्थाई मकान नहीं बनाये जा सकते थे? या टिन के कंटेनर भी किसी समतल जगह पर नहीं बनाये जा सकते थे? इसका सीधा जवाब ये है कि आपकी नजरों में मजदूर की जिन्दगी की कोई कीमत नहीं है। आप मानते हैं कि मजदूर तो पैदा ही मरने के लिए होता है।
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मजदूरों की बात चली है तो मुझे सिलक्यारा याद आ रहा है, जहां 41 मजदूर 17 दिन तक सुरंग में फंसे रहे थे। जब मैं सिलक्यारा गया तो स्थानीय लोगों ने बताया कि सुरंग के मुहाने से 1 किमी दूर बंद हुई है। पहाड़़ी की दूसरी तरफ से होल करेंगे तो फंसे हुए मजदूर कुछ सौ मीटर पर ही मिल जाएंगे। लेकिन, ऐसा करने पर सुरंग बना रही कंपनी को बड़ा नुकसान हो जाता। इसलिए ऐसा नहीं किया गया। मलबे में ही होल बनाने का प्रयास किया गया। लोगों का ध्यान बांटने के लिए एक विदेशी को बुलाकर मंदिर के सामने बिठा दिया। सूचना विभाग के एक अधिकारी को वहां बिठाकर अंधविश्वास वाली खबरें प्लांट करवाई। और आखिर में फिर कुछ गरीबों की, यानी रैट माइनर्स की जिन्दगी खतरे में डालकर सुरंग में फंसे मजूदरों को रेस्क्यू किया। जब मजदूर बाहर आये तो किस तरह की नाटकबाजी हुई आपने देखा होगा। 17 दिनों में किसी की बाल-दाढ़ी बेतरतीब नहीं बढ़े थे। सभी नहाये-धोये और बालों में तेल डाले हुए थे। और कहा गया कि बस तुरंत निकाले जा रहे हैं। ये ड्रामा इसलिए किया गया कि लोगों का ध्यान बंटाया जा सके।
माणा के एवलांच ने बदरीनाथ की सुरक्षा को लेकर भी सवाल खड़े कर दिये हैं। वैसे तो 3 से 4 हजार मीटर की ऊंचाई वाला बदरीनाथ से माणा तक का पूरा क्षेत्र बेहद संवेदनशील है, लेकिन स्मार्ट धाम के नाम पर बदरीनाथ में जिस तरह तोड़फोड़ की गई, उससे हिन्दुओं का यह पवित्र धाम बहुत खतरनाक हो गया है। आपको पता है, बदरीनाथ में शंख नहीं बजाया जाता। बचपन में इसे लेकर कई कहानियां हमने सुनी थी। जिनमें आतापी और वातापी राक्षस की कहानी प्रमुख थी। बाद में उच्च हिमालयी क्षेत्रों की संवेदनशीलता को जाना, ग्लेशियरों के बारे में पढ़ा तो पता चला कि यह व्यवस्था आतापी वातापी के कारण नहीं, बल्कि इसलिए की गई होगी, ताकि शंखध्वनि से ग्लेशियर न चटक जाएं। हम जब कभी उच्च हिमालयी बुग्यालों में जाते थे तो बुजुर्ग हमें हिदायत देते थे कि जोर से बातचीत मत करना, खांसी आये तो मुंह पर हाथ रखना। डराया जाता था कि ऐसा नहीं किया तो आछरिया,ं यानी ऊंचे पहाड़ों में रहने वाली परियां हरण कर लेंगी। दरअसल ये काल्पनिक परियां इसलिए बनाई गई थी, ताकि इन संवेदनशील क्षेत्रों में मानवीय हस्तक्षेप कम से कम हो।
मैं 2023 के सितंबर मंे बदरीनाथ गया तो वहां आधा दर्जन से ज्यादा जेसीबी और पोकलैंड मशीनें लगी थी। पूरा बदरीनाथ मशीनों के भारी शोर-शराबे में डूबा हुआ था। जिस बदरीनाथ में शंख बजाने तक की मनाही की गई थी, वहां दर्जनों भारी भरकम मशीनों ने इन पहाड़ों की क्या हालत कर दी होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है।
बदरीनाथ के पंडा पुरोहितों ने मुझे बताया कि मंदिर के ठीक पीछे पुरोहितों के घर बनाये गये थे। ये मंदिर की सुरक्षा में महत्वपूर्ण थे। नारायण पर्वत की तरफ से खिसककर आने वाले ग्लेशियर या एवलांच को पुरोहितों के घर मंदिर तक नहीं पहुंचने देते थे। एवलांच के कारण घरों में जो नुकसान होता था, उसकी मरम्मत कर दी जाती थी। लेकिन अब स्मार्ट धाम के नाम पर पुरोहितों के घर तोड़ दिये गये हैं। ग्लेशियर और एवलांच की पहुंच अब सीधे मंदिर तक है।ं विशेषज्ञ भी मानते हैं कि बिना समुचित अध्ययन और बिना जरूरी सावधानी के बदरीनाथ में जिस तरह से भारी भरकम निर्माण कार्य करवाये गये हैं और जिस तरह से मंदिर के 75 मीटर के दायरे में सभी पुराने निर्माण हटा दिये गये हैं, उससे पर्यावरणीय असंतुलन पैदा हो सकता है और प्राकृतिक आपदायंे बढ़ सकती हैं।