उत्तराखंड में इन दिनों विवाद चल रहा है कि यहां के लोग बाहर से आये हैं। पहले ये बात मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने विधानसभा में कही। फिर सुबोध उनियाल का एक वीडियो सामने आया। इस विवाद के बीच हम यहां पत्रकार और आंदोलनकारी रहे स्व. एस. राजेन टोडरिया का ये लेख प्रकाशित कर रहे हैं। लेख उनके पुत्र एक्टिविस्ट लुशुन टोडरिया के सौजन्य से प्राप्त हुआ। यह लेख उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के एक बयान के बाद लिखा था।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने हाल ही में बताया के वह तो बंगाल के भट्टाचार्य हैं। अपन अभी तक यही मानते थे कि स्व0 हेमवतीनंदन बहुगुणा जिन्हे लोग गर्व से हिमपुत्र हेमवतीनंदन बहुगुणा कहते थे वो बुघाणी के कल्या थे। लेकिन अब जाकर पता चला कि उन पर हमको नहीं पश्चिम बंगाल के लोगों को गर्व होना चाहिए कि उनके एक आदमी ने उत्तरप्रदेश पर राज किया। लेकिन यह बात पहली बार नहीं कही गई है और न विजय बहुगुणा को इसका दोष दिया जाना चाहिए कि उन्होने कोई कुफ्र कह दिया। दरअसल उत्तराखंड के कुलीन ब्राह्मण और क्षत्रिय लगातार यह कहते रहे हें कि वह पहाड़ी नहीं हैं। उनके पुरखे तो बाहर से आए हैं। सारे उच्च जाति के सवर्ण बाहर से आए हैं। मैं जातिप्रथा पर बहुत ज्यादा यकीन नहीं रखता पर मुझे भी बताया जातार है कि बद्रीनाथ के पंडे तो शंकराचार्य के साथ दक्षिण भारत या महराष्ट्र,कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश से आए हुए लोग हैं। मुझे नहीं पता कि इन कुलीन जातियों के आज के वंशजों को यह पता भी है कि नहीं कि उनके पूर्वजों के पहाड़ में आने की सही-सही तिथि क्या थी। मेरी समस्या यह है कि टोडरिया से मिलती जुलती जाति मुझे पूरे हिंदुस्तान में कहीं नहीं मिली। इसलिए मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है कि मेरे पूर्वज कहां से आए। यह सवाल मुझे परेशान भी नहीं करता। क्योंकि मेरा सौभाग्य है कि महान हिमालय का बेटा हूं और पहाड़ी हूं। अगर मैं पहाड़ी नहीं होता शायद मेरा जीवन बहुत अधूरा होता। पहाड़ और नदियां मेरे खून में दौड़ती हैं।
लेकिन अचरज यह है कि पहाड़ में आने वाले कुलीन सवर्ण कोई 1200 साल पहले या उससे भी बहुत पहले इन बीहड़ पहाड़ों में आए होंगे। हमारी 28 से उससे ज्यादा पीढ़ियां इस भूमि के अन्न-जल से पली बढ़ी हैं। इस भूमि से ही हमारा रक्त, हमारी कोशिकायें बनीं, इसी भूमि से की हवा पानी और मौसम ने हमारे डीएनए में जरुरी बदलाव किए। अब 1200 साल बाद हम कह रहे हैं कि हम मैदानी इलाकों के उस छोर या इस छोर से आए। क्या है यह सब? यह कैसी मनोदशा है? क्या हमारी उच्च जातियां पहाड़ी होने के अपराध बोध या हीन भावना से ग्रस्त हैं? वे 1200 साल बाद अपनी जड़ें बंगाल, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक में क्यों खोज रहे हैं? क्या उनको फिजी या मारीशस के गिरमिटियों की तरह यहां जबरदस्ती लाया गया था? फिर यह गिरमिटिया मानसिकता क्यों? अपनी मातृभूमि के प्रति यह अहसान फरामोशी क्यों? इस धरती के अन्न और जल का कर्ज हम पर है। यही हमारी मात्भूमि है और पितृभूमि भी।
मैं उत्तराखंड के खशों और शिल्पकारों को प्रणाम करता हूं । उच्च जातियों द्वारा दुत्कारे जाने और कमतर ठहराए जाने के बाद भी उन्होने कभी नहीं कहा कि वे पहाक वे पहाड़ की इसी मां के बेटे नहीं हैं। वे अपनी जड़ें खोजने भारत के मैदानों में नहीं खोज रहे हैं। जिन लोगों को लगता है कि वे पहाड़ी नहीं हैं बल्कि बंगाली,बिहारी,कर्नाटकी या दक्षिण भारतीय हैं तो क्यों नहीं जाते अपने मूल राज्यों में?‘‘ हम कहां से आए ,यह उत्सुकता का विषय हो सकता है। यह इतिहास के अध्ययन का भी विषय हो सकता है। मानवीय उत्सुकतायें और जिज्ञासायें हमें खोज के लिए प्रेरित करते हैं। पर पहाड़ का दुर्भाग्य है कि मैदानी समाज पहाड़ियों को पिछड़ा मानता है। यह धारणा तब से चली आ रही है जबसे मैदानी समाज पहाड़ों के संपर्क में आए। इतिहास लेख्चान में भी यह पूर्वाग्रह अक्सर जनजर आता है। यह स्वाभाविक भी है कि आप विजातीय समाजों के प्रति एक खास तरह की धारणा बना लें। लेकिन नृृवंश शास्त्र और जैविक विविधता के नजरिये से हिमालय के समाज दुनिया के अनूठे समाज हैं ।
मानवीय भावनाओं,संवेदनाओं और मनुष्यता के तमाम मानकों पर वे मैदानी समाजों की अपेक्षा कहीं ज्यादा मानवीय समाज रहे हैं। उनका संतोषी होना और लगभग अपरिग्रही होना हमें आज भी अचरज में डालता है। वे बला के संतोषी हैं। उनकी ईमानदारी की मिसालें दी जाती थीं। एक समय था जब मैदान के लोगों को उनकी ईमानदारी और भलमनसाहत इतनी भाती थी कि उन्हे घर के लिए नौकर पहाड़ी ही चाहिए था। क्योंकि बेईमान मालिकों को भी नौकर मेहनती और ईमानदार ही चाहिए था। ऐसा भला मनुष्य जो मजदूरी बढ़ाने के लिए न कहे, जितना मिल जाय उसी में संतुष्ट रहे। इतना संतोषी आदमी तो हिमालय ही पैदा कर सकता है। क्योंकि वहां की आबोहवा में संतोष और इतमीनान है। यदि पहाड़ में आज भी विषमता का सूचकांक सबसे कम है तो यह पहाड़ के लोगों के इसी बुनियादी गुण के कारण है। पहाड़ के अधिकांश गांव आज भी घरों पर ताला नहीं लगाते। पहाड़ में आज भी चोरी,हत्या,बलात्कार,डकैती,लूट जैसे अपराध इतने कम है कि पूरी कानून व्यवस्था की बागडोर एक निहत्थे पटवारी के हाथ में है। सदियों से हत्या के आरोपियों समेत बड़े-बड़े अपराधियों को मीलों पैदल चलकर एक निहत्था पटवारी ही आदलतों तक पहंुचाता रहा। लेकिन एक भी अभियुक्त कभी किसी पटवारी की कस्टडी से नहीं भागा।टिहरी जिले की धनोल्टी उपतहसील का एक रोचक किस्सा है।
एक बार जौनपुर से पटवारी ने एक हत्यारोपी को पकड़ा और अपनी कस्टडी में धनोल्टी तहसील मुख्यालय तक लाया। हत्यारोपी और पटवारी रात में जमकर स्थानीय शराब सुर पी। पटवारी को जब सुबह तक होश नहीं आया तो अभियुक्त ने पटवारी को पीठ पर लादा और टिहरी में अदालत में हाजिर हो गया। न्यायाधीश एक पहाड़ी अभ्यिुक्त की इस विचित्र ईमानदारी से हैरत में पड़ गया। लेकिन पहाड़ के लोगों के लिए ये सामान्य व्यवहार की बातें हैं।अपराधियों में भी ऐसी भावना इसी पहाड़ के कारण रही है।क्या ऐसे अनूठे समाज और ऐसी विरासत का उत्तराधिकारी होने के नाते हमें हीनभावना से ग्रस्त होना चाहिए? क्या हमू मैदानी समाजों के मुकाबले पिछड़े हुए समाज हैं? यदि अगड़े होने का अर्थ दंद-फंद और बेईमानी, लालच है तो हम पिछड़े ही ठीेक हैं। जो लोग पहाड़ी होने पर गर्व करने के बजाय बिहारी,राजस्थानी, मराठी, तमिल, तेलगु, मलयाली होना चाहते हैं तो ये तमगे उनको मुबारक! हम हिमालय की महान सभ्यता हैं। आल्प्स से लेकर काकेशस,हिंदूकुश तक के पहाड़ी समाजों का यही मिजाज है। हम एक विश्व सभ्यता और स्वभाव का हिस्सा हैं। हमें दुनिया के पर्वतीय समाजों का एक हिस्सा होने पर गर्व है।