भीमबेटका: हमारे पुरखों का एक गुफा गांव

मानव के वंशजों को बांटने और उनके बीच खून-खराबा करवाने वालों को पहचानना होगा

त्रिलोचन भट्ट

 

नुष्य को धरती पर आये करीब-करीब 10 लाख साल हो गये हैं। जब वह धरती पर आया तो क्या था उसके पास? चारों तरफ घने जंगल और उन जंगलों में हिंसक वन्य जीव। कदम-कदम पर दुश्वारियां, फिर भी मनुष्य ने 5 लाख सालों की यात्रा पूरी की और हमें यहां तक पहुंचा दिया, जहां हमारे पास हर तरह की सुख-सुविधाएं हैं और सुरक्षा के तमाम बंदोबस्त हैं। क्या आप जानते हैं कि ऐसा कैसे संभव हुआ? दरअसल कुछ न होते हुए भी हमारे पुरखों के पास एक अनमोली पूंजी थी।

हमारे उन पुरखों के पास न धर्म था, न कोई संविधान था, यहां तक कि कोई परिमार्जित भाषा भी नहीं रही होगी, घर तो चलो उन्होंने गुफाओं, कंदराओं में बना लिये होंगे, लेकिन कपड़े होना तो दूर की बात थी। जीने के लिए और मानव सभ्यता को आगे बढ़ाने के लिए उनके पास जो सबसे बड़ी पूंजी थी, वह थी मानव मूल्य। मानव मूल्यों के सहारे से ही हमारे पुरखे दक्षिण अफ्रीका से चलकर पूरी दुनिया में फैल गये और आज धरती-पाताल एक करने की जुगत में लगे हुए हैं। इस वीडियो में हम उन्हीं मानव मूल्यों की बात करेंगे और इसलिए करेंगे कि हमें इस दुनिया को यहीं खत्म नहीं होने देना है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखना है। हम इन मूल्यों पर बात करते हुए यह भी जांचने का प्रयास करेंगे कि आज हमारे भीतर वे मानव मूल्य कितने जिन्दा रह गये हैं और यह भी कि मानव मूल्यों के नाम पर हम कहीं मनुष्यों में भेद तो नहीं कर रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि हम मानव मूल्यों के नाम पर दोगलापन कर रहे हों।

ये है भीमबेेटका। हमारे आदि पुरखों का एक भरा-पूरा गांव। भीम बेटका मध्यप्रदेश के रायसीना जिले में विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं की तलहटी में है। राजधानी भोपाल से इसकी दूरी करीब 50 किमी है। ये गांव हमें अपने पुरखों के बारे में कई तरह की जानकारियां देता है। अपने रहन-सहन के तौर तरीकों को हमारे उन पूर्वजों ने चित्र बनाकर भीमबेटका की गुफाओं की दीवारों पर उकेरा है। ये चित्र 10 हजार से 30 हजार साल पुराने हैं। भीमबेटका की विस्तृत जानकारी देता एक वीडियो इस चैनल पर उपलब्ध है। समय हो तो देखिएगा जरूर।

इस गांव में मैं आपको इसलिए लाया हूं ताकि हम जान और समझ सकें कि हम किन परिस्थितियों से होकर मानव सभ्यता के इस मुकाम तक पहुंच पाये हैं। कल्पना कीजिए भीमबेटका जैसे गुफा गांवों में रहने वाले हमारे पुरखे आज की तरह जाति और धर्म की लड़ाई लड़ रहे होते तो क्या आज हम यहां तक पहुंच पाते? नहीं पहुंच पाते। वहीं के वहीं खत्म हो गयेे होते। ऐसा नहीं है कि उस समय लड़ाइयां नहीं होती थी। होती थी, अलग-अलग कबीलों की बीच लड़ाइयां होती थी। लेकिन, वे लड़ाइयां सिर्फ भोजन की लड़ाइयां थी, पेट भरने लायक भोजन जुटाने के साथ ही वे लड़ाइयां खत्म हो जाती थी। वे आज की तरह खुद को श्रेष्ठ साबित करने और दूसरे को नीचा दिखाने की लड़ाइयां नहीं थी। आज की लड़ाइयां जितना पेट भरता है, उतनी ज्यादा भड़क जाती हैं।

मानव के वंशजों को किसने बांटा?

आज के दौर में हमारे भीतर मानव मूल्य कितने बचे हुए हैं, जरा ये जांच करते हैं। फर्ज कीजिए सड़क पर कोई एक्सीडेंट हो जाता है। आप वहां से गुजर रहे हैं। आप क्या करेंगे? दौड़ पडेंगे उस तरफ। क्यों? इस उम्मीद के साथ कि शायद आप दुर्घनाग्रस्त हुए लोगों कीे कुछ मदद कर सकें, उनकी जान बचा सकें। क्या आपके मन में उस समय ये सवाल आता है कि वे लोग जो दुर्घटनाग्रस्त हुए हैं आपके धर्म या आपकी जाति के हैं या नहीं? नहीं आता न… ये असली मानव मूल्य है जो भीमबेटका की गुफाओं से लेकर तमाम तरह की सुविधाओं से सुसज्जित हमारे आज के आलीशान घरों तक हमारे साथ बना हुआ है।

लेकिन, जब आप सड़कों पर उतरकर आक्रोश जताते हैं कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहा है और मणिपुर में महिलाओं को निर्वस्त्र करने की घटना पर आप आमतौर पर चुप रहते हैं। अंकिता को किसी सत्ताधारी की हवस का शिकार बनाने का प्रयास विफल हो जाने पर उसकी हत्या कर दिये जाने के मामले में जब आप दूसरे लोगों के साथ सड़कों पर नहीं उतरते तो इसे क्या माना जाए? यदि बांग्लादेश की घटनाओं का विरोध आपके भीतर मानवता की भावना की अभिव्यक्ति है तो अंकिता की हत्या किये जाने पर वह अभिव्यक्ति नदारद क्यों हो जाती है? यदि यह मानवता है तो आपका आक्रोश अपने देश में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे बर्ताव पर भी फूटना चाहिए। आपका आक्रोश अपने देश के उस जज पर भी फूटना ही चाहिए, जो संविधान की शपथ लेकर जज तो बन गया, लेकिन जिसके भीतर संवैधानिक मूल्य तो दूर, सामान्य मानवीय मूल्य भी जीवित नहीं हैं।

 

हाल ही में मैं देख रहा था कि उत्तराखंड सहित कई जगहों पर लोग सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे थे। बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। दुनिया के किसी भी देश में मानव जाति पर अत्याचार हो रहा है तो हर किसी को आवाज उठानी चाहिए। यही तो मानव मूल्य हैं, जिनका मैं जिक्र कर रहा हूं। इसलिए बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रही घटनाओं के खिलाफ आवाज उठाना हम सबका फर्ज है। मैं इस तरह का प्रदर्शन करने वालों को साधुवाद देता हूं।


लेकिन मेरा सवाल यह भी है कि जब, जैसा कि मैंने जिक्र किया, मणिपुर में महिलाओं को निर्वस्त्र करके उनके शरीर के साथ शर्मनाक छेड़छाड़ की गई या जब अंकिता की हत्या कर दी गई, तब आप चुप क्यों थे? अंकिता की हत्या के बाद विरोध में सड़कों पर उतरे लोगों की इस भीड़ में बांग्लादेश के लिए सड़कों पर उतरे लोग चाहें तो खुद को तलाश सकते हैं। मुश्किल से कोई मिल पाएगा। वो भी गफलत में आया होगा। और हां जब एक झूठी कहानी गढ़कर पुरोला में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की दुकानों पर पुरोला छोड़ने की चेतावनी चस्पा की जा रही थी, तब कहां थी आपकी वह मानवता, जो बांग्लादेश को लेकर अचानक जाग उठी है। बांग्लादेश में धर्मस्थलों को जलाना शर्मनाक है। इससे मेरा भी खून खौला। कोई भी व्यक्ति या कोई भी समूह किसी दूसरे की आस्था के केन्द्र के साथ ऐसा कैसे कर सकता है? लेकिन मेरा खून तब भी खौला जब आप उत्तरकाशी में एक पुराने धर्मस्थल को तोड़ने के लिए चल पड़े थे।

मानव मूल्य सिर्फ अपने धर्म, अपनी जाति, अपने समूह के लिए नहीं होते। वे सबके लिए होते हैं। आप अपने धर्म के लोगों के साथ हो रहे अत्याचार को लेकर आक्रोशित होते हैं, लेकिन जब आपके धर्म के लोग दूसरों के साथ वैसा ही करते हैं तब आप आक्रोशित नहीं होते तो माफ करना, मुझे बेहद अफसोस के साथ कहना पड़ेगा कि आपके भीतर के मानव मूल्य मर चुके हैं। इन मानव मूल्यों के हत्यारे आप खुद हैं या कोई दूसरा, यह आपको तय करना है।

फर्ज कीजिए कि यदि हम सब तय कर लें कि हमें मानव मूल्यों और संवैधानिक मूल्यों को जीवन में उतारना है। उन्हीं मूल्यों पर आगे बढ़ना है तो क्या होगा? तय है कि कुछ लोग सत्ता से बेदखल हो जाएंगे। ध्यान दीजिए मनुष्य 5 लाख सालों से धरती पर है और धर्म बमुश्किल 5 हजार साल से अस्तित्व में हैं। यानी कि 4 लाख 95 हजार साल तक मनुष्य इस धरती पर बिना धर्म के रहा है। इन सालों में उसका सिर्फ एक ही धर्म था, मानव धर्म। उसी मानव धर्म ने आज हमें सभ्यता के इस सौपान तक पहुंचाया है।

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