मरचुला बस हादसा : कौन है जिम्मेदार

त्रिलोचन भट्ट

त्तराखंड को प्राकृतिक आपदाओं का राज्य कहा जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस राज्य में सबसे ज्यादा मौतें आपदाओं से नहीं बल्कि सड़क हादसों से होती हैं। और सड़क दुर्घटनाएं क्यों होती हैं? लापरवाही से। जानलेवा सरकारी लापरवाही के कारण एक बार फिर उत्तराखंड की धरती लहू-लुहान हुई है। अल्मोड़ा जिले में माचुर्ला के पास बस दुर्घटना में 38 लोगों की मौत ने हम सभी को गमगीन कर दिया है। कई लोग गंभीर रूप से घायल हैं।

दरअसल हर त्योहार के बाद बसों में भीड़ होती है। खासकर दूर-दराज के ऐसे इलाकों में जहां पूरे दिन में एक-दो बसें ही चलती हैं। नैनीडांडा से अल्मोड़ा के मार्चूला होते हुए रामनगर जा रही बस का रूट भी कुछ ऐसा ही है। इस प्राइवेट पर में सीटों की संख्या 42 थी और यात्री सवार थे 55 से 60 के बीच। पहाड़ की सड़कों पर यह ओवरलोडिंग अपने आप में जानलेवा है। लोगों को तो हर हाल में पहुंचना ही होता है, ऐसे में सरकार का क्या फर्ज है? दूर दराज के इलाकों में आप साम्प्रदायिक जहर बो सकते हैं तो क्या लोगों को बस की समुचित सुविधा नहीं दे सकते? यह सवाल सरकार से पूछा जाना चाहिए कि नहीं?

मरचुला के कूपी गांव के पास हुए हादसे के मृतकों को श्रद्धांजलि। इस हादसे ने 4 अक्टूबर 22 को पौड़ी जिले के बीरोंखाल के पास हुए बस हादसे की याद दिला दी, जब बरातियों को ले जा रही बस दुर्घटनाग्रस्त होने से 34 लोगों की मौत हो गई थी। कुछ और बड़े सड़क हादसों पर नजर डालें तो 22 जून 2023 को पिथौरागढ़ जिले में हुए एक्सीडेंट में 10 लोगों की मौत हो गई थी। ये लोग बागेश्वर जिले से एक मंदिर में जा रहे थे। 17 नवम्बर 23 को नैनीताल जिले की छीरखान-रीठा साहिब मोटर मार्ग पर पिकअप वाहन दुर्घटना में 9 लोगों की मौत हो गई। 24 नवंबर को नैनीताल जिले में ही बाघनी पुल के पास यूपी के 5 पर्यटकों की मौत हुई थी।

आमतौर किसी भी सड़क दुर्घटना के दो कारण माने जाते हैं, ड्राइवर की गलती या ओवरलोडिंग। दुर्घटना के बाद पुलिस के जांच भी इन्हीं दो बिन्दुओं पर केन्द्रित होती है। लेकिन, वास्तव में हर बार दुर्घटना के कारण ये दो ही नहीं होते। वाहन व सड़क की स्थिति और दुर्घटनास्थल की परिस्थितियां भी दुर्घटना के लिए बराबर की जिम्मेदार होती हैं। यदि साइंटिफिक तरीके से हर दुर्घटना की जांच की जाए तो हम न सिर्फ दुर्घटना के असली कारणों तक पहुंच पाएंगे, बल्कि इससे दुर्घटनाओं को रोकने में भी मदद मिलेगी। देहरादून स्थित एसडीसी फाउंडेशन की सस्टेनेबल डायलॉग सीरीज के अंतर्गत उत्तराखंड में सड़क दुघर्टनाएं: चुनौतियां और समाधान विषय पर पिछले वर्ष एक सेमीनार आयोजित किया गया था। जिसमें विशेषज्ञों ने ये बात कही थी।

इस सेमिनार में मैं खुद भी शामिल हुआ था। सेव लाइफ फाउंडेशन के सीईओ डॉ. पीयूष तिवारी ने सेमिनार में कहा था कि उत्तराखंड में हर सड़क दुर्घटना मरने और घायल होने वालों की संख्या का औसत देशभर में सबसे ज्यादा है। देश में 100 सड़क दुर्घटनाओं में औसतन 26 लोगों की मौत होती है, जबकि उत्तराखंड में यदि 100 दुर्घटनाएं होती हैं तो उनमें करीब 70 लोगों की मौत हो जाती है। उनका कहना था कि किसी भी हादसे के पीछे सिर्फ ड्राइवर को दोषी मान लेने की मानसिकता से बाहर आना होगा। हमें यह बात स्वीकार करनी होगी कि ड्राइवर कितना भी कुशल हो, वह कहीं न कहीं गलती कर सकता है। हमें ऐसे प्रयास ये करने चाहिए कि ड्राइवर की गलती के बाद भी हादसे में लोगों की जान बचाई जा सके। हर हादसे का साइंटिफिक इंवेस्टिगेशन करके और सेफ सिस्टम एप्रोच अपनाकर हादसों और उनसे होने वाली मौतों को रोका जा सकता है।

इसी सेमिनार में एम्स ऋषिकेश के असिस्टेंट प्रोफेसर और ट्रामा सर्जरी स्पेशलिस्ट डॉ. मधुर उनियाल ने कहा था कि सड़क दुर्घटनाओं में आम तौर पर वे लोग मारे जाते हैं, जो अपनी प्रोडक्टिव ऐज में होते हैं। मतलब ऐसे लोग जिन्हें जिन्दगी में अभी बहुत करना था। ऐसे में ये मौतें न सिर्फ उनके परिवारों बल्कि पूरे समाज को नुकसान पहुंचाती हैं। उन्होंने कहा कि प्रोडक्टिव ऐज में होने वाली मौतों की संख्या में उत्तराखंड सबसे ऊपर है और इसका एकमात्र कारण सड़क दुर्घटनाएं हैं।

उन्होंने एक और महत्वपूर्ण जानकारी इस सेमिनार में दी थी। कहा था कि दिल्ली के अस्पतालों में दुर्घटनाओं के शिकार नॉन रिस्पांडस केस बड़ी संख्या में आते हैं। नॉन रिस्पांडस वे केस होते हैं, जिन्हें एडवांस हेल्थ केयर की जरूरत होती है। लेकिन, ऋषिकेश में ऐसे केस नहीं आते। इसका सीधा अर्थ है कि दुर्घटनास्थल के आसपास चिकित्सा व्यवस्था न होने के कारण इस तरह के घायलों की हॉस्पिटल पहुंचने से पहले ही मौत हो जाती है। यदि दुर्घटनास्थल के आसपास प्राइमरी ट्रामा सेंटर्स हों और ऐसे गंभीर घायलों को जल्द से जल्द लेवल वन ट्रामा सेंटर्स तक पहुंचने की व्यवस्था हो तो उत्तराखंड में दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों को कम किया जा सकता है।

एसडीसी फाउंडेशन के अनूप नौटियाल ने कहा था कि पिछले 5 वर्षों में उत्तराखंड में करीब 7 हजार सड़क दुर्घटनाएं हुई हैं और इनमें 5 हजार लोगों की मौत हुई है। इतने ही घायल हुए हैं। है न चौंकाने वाला आंकड़ा? उन्होंने कहा था कि यदि प्राथमिक हेल्थ केयर सिस्टम में सुधार किया जाए तो राज्य में दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों की संख्या कम की जा सकती है।

लेकिन अफसोस कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। आज के हादसे के बाद अल्मोड़ा और पौड़ी जिले के संबंधित एआरटीओ का सस्पेंड किया गया है। इससे क्या होने वाला है, पता नहीं। पर लगना चाहिए कि सरकार कुछ कर रही है। आज भी कुछ गंभीर घायलों को एयर लिफ्ट करके एम्स ऋषिकेश और हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज ले जाया गया। लेकिन इस कवायद में इतनी देर हो जाती है कि अक्सर नॉन रिस्पांडस स्थिति वाले घायलों की तब तक मौत हो जाती है।

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