संविधान दिवस: मजदूरों को तो कभी नागरिक माना ही नहीं

त्रिलोचन भट्ट

 

ज संविधान दिवस है। आज ही के दिन, यानी 26 नवंबर 1949 को 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा में भारत के संविधान को अंगीकृत किया गया था। संविधान की प्रस्तावना कहती है कि भारत के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त हो। पिछले सालों में सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय कितना मिल पाया है यह हम अच्छी तरह जानते हैं। ताजा घटना सुरंग में फंसे 41 मजदूरों की है। यह उदाहरण आज हमारे सामने सबसे प्रमुख रूप से मौजूद है, जिस सामने रखकर हम संविधान में नागरिकों को मिले अधिकारों की व्याख्या कर सकते हैं।

उत्तरकाशी के सिलक्यारा की निर्माणाधीन सुरंग में जो 41 मजदूर 15 दिन से फंसे हुए हैं, क्या उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त है? सत्ताधारी पार्टी के लोग बिना इस सवाल पर कुछ सोचे-समझे तुरंत हां बोल सकते हैं। या हो सकता है सवाल पूछने वाले को अपनी संस्कृति के अनुसार गालियां देना शुरू कर दें। लेकिन, सच्चाई यह है कि 41 मजदूर में से ज्यादातर को सामाजिक न्याय आज भी नहीं मिला है। वह आज भी हमारे समाज में दोयम दर्जे के लोग हैं।य ऐसा न होता तो उन्हें इस संकट ने निकालने के लिए इस वक्त समाज के हर तबके से आवाज उठ रही होती। आर्थिक न्याय यदि उन्हें प्राप्त होता तो वे भी गरिमापूर्ण जीवन जी रहे होते। गरिमापूर्ण आजीविका से अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे होते। उन्हें आर्थिक न्याय मिला होता तो वह गहरी, अंधेरी सुरंग में जिन्दगी को दांव पर लगाकर काम करने के लिए अभिशप्त नहीं होते। राजनीतिक न्याय की बात करें तो मजदूरों के फंसने के बाद हम लगातार देख रहे हैं कि उनके साथ किस तरह से राजनीतिक अन्याय किया जा रहा है। सत्ताधारी पार्टी अपने लाभ के लिए लगातार इन मजदूरों के जीवन को खतरे में धकेलने पर आमादा है।

दरअसल यह प्रोजेक्ट 2024 के लोकसभा चुनाव में वोट बटोरू प्रोजेक्ट के रूप में देखा जा रहा था। सत्ताधारी पार्टी का अनुमान था कि 2022 तक यह परियोजना पूरी हो जाएगी। इसे पहले वेदर रोड कहा गया था और बाद में नाम बदलकर चार धाम सड़क परियोजना किया गया। सत्ताधारी पार्टी को उम्मीद थी कि 2024 के चुनाव में इसका लाभ लिया जा सकेगा। लेकिन, योजना पूरी होने में देरी हो गई। अब, जबकि 2024 सिर पर है और साल के शुरुआती महीनों में ही लोकसभा चुनाव होने हैं तो इस परियोजना को जल्दी से जल्दी पूरा करने का प्रयास है। सिलक्यारा की सुरंग इसी योजना का हिस्सा है, इसलिए जल्दी से जल्दी टनल पूरा करने का दबाव था। अब जब टनल धंस गई है, 41 मजदूर 15 दिन से वहां फंसे हुए हैं, तब भी प्रयास किया जा रहा है कि सुरंग को नुकसान पहुंचाये बिना मजदूरों को निकाला जाए। दरअसल सुरंग के किसी भी हिस्से को तोड़ दिया गया तो उसकी मरम्मत करने में कई महीने लगेंगे। तब तक लोकसभा चुनाव में हो जाएंगे और परियोजना का लाभ नहीं लिया जा सकेगा। यानी कि राजनीतिक लाभ के लिए 41 लोगों के जीवन से सीधा खिलवाड़ किया जा रहा है।

संविधान की प्रस्तावना में एक शब्द और है ‘व्यक्ति की गरिमा’। इसका अर्थ यह है कि हमारा संविधान सिर्फ जीने का नहीं, बल्कि गरिमामय जीवन जीने का अधिकार देता है। अब यहां सवाल यह उठता है कि हमारे देश में आबादी का कुल कितना हिस्सा गरिमामय जीवन जी रहा है? मुझे नहीं लगता कि देश की आबादी के आधे हिस्से को भी गरिमामय जीवन नसीब हो रहा है। गरीब और मजदूर के गरिमामय जीवन को लेकर सरकारें कितनी संवेदनशील हैं, यह हम कई बार देख चुके हैं।

हम जरा कोविड-19 लॉकडाउन को याद करें, जब देश के प्रधानमंत्री ने सिर्फ चार घंटे का समय देकर पूरे देश को बंद कर दिया था। सारे काम-धंधे बंद कर दिए थे और देशभर की परिवहन व्यवस्था को ठप कर दिया गया था। ऐसे में रोज कमाकर रोज खाने वाले मजदूर क्या करेंगे, यह जानने की देश के प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने कोई जरूरत ही महसूस नहीं की। सीधा सा अर्थ है कि जब देश में कोविड के पॉजिटिव मामलों की संख्या सिर्फ 500 थी, तब इस तरह का फैसला एक अनिष्टकारी फैसला था। इस फैसले को लेते समय गरीबों और मजदूरों का कोई ध्यान नहीं रखा गया था। मैं यहां यह उल्लेख जरूर करना चाहूंगा कि उस वक्त यदि सरकार चाहती तो विदेशों से आने वाले लोगों को रोक कर या हवाई अड्डे के आसपास ही अनेक क्वॉरेंटाइन कर देश को कोरोना से मुक्त रख सकती थी। विपक्ष के नेता राहुल गांधी बार-बार उस दौरान बार-बार अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सरकार को चेता भी रहे थे कि वह जरूरी कदम उठाए। लेकिन, सरकार और उसके लोग राहुल गांधी की इस सलाह पर ध्यान देने की बजाय उन्हें मूर्ख और छोटा बच्चा जैसा साबित करने के प्रयास में जुटे हुए थे। उन्हें पोगो यानी कि छोटे बच्चों का कार्टून देखने की सलाह दी जा रही थी। उसके बाद जो हुआ वह सब ने देखा।

लॉकडाउन और मजदूरों की बात करें तो सब कुछ बंद हो जाने के बाद उनके लिए जीवन जीना आसान नहीं रह गया था। जहां शहरों में वे रह रहे थे, वहां वहां काम-धंधे बंद थे। भूखे मरने की नौबत थी। वे अपने घरों को लौटना चाहते थे, लेकिन न सड़कों पर कोई वाहन था और न रेल चल रही थी। मजदूर पैदल ही अपनी गठरियां और अपने छोटे-छोटे बच्चों को कंधों और पीठ पर लादकर अपने गांवों की ओर चल पड़े। यहां भी उन्हें सड़कों पर रोका गया। उनके साथ मारपीट की गई। कई मजदूरों ने रेल की पटरी का रास्ता पकड़ा और इस प्रयास में मारे भी गए। इस आपा-धापी और अपने गांव पहुंचने के प्रयास में बहुत से मजदूरों और उनके बच्चों की मौत हुई। जब केन्द्र सरकार से पूछा गया कि कितने लोगों की मौत हुई तो उसने कह दिया कि कोई आंकड़ा नहीं है।

यह है इस देश में और भारतीय जनता पार्टी की सरकार में ‘व्यक्ति की गरिमा’। हाल ही में भारत की संसद एक नए भवन में शिफ्ट हुई। नए संसद भवन की पहली बैठक में संविधान की जो प्रति सदस्यों को दी गई, उसकी प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं था। इसे हटाने का सीधा अर्थ है कि यह सरकार समाजवाद से परहेज करती है। तो पूछा जाना चाहिए कि क्या ‘समाजवादी’ शब्द के जगह सरकार ‘पूंजीवादी’ शब्द जोड़ना चाहती है? मौजूदा भाजपा सरकार पूंजीवाद के प्रति किस तरह से समर्पित है, इसका उदाहरण भी हमने कोरोना काल में देखा। जब देश में सभी काम-धंधे बंद थे, उत्पादन बंद था, मजदूरी बंद थी, उस समय देश के एक पूंजीपति की पूंजी में हर मिनट बढ़ोतरी हो रही थी। धर्मनिरपेक्ष शब्द की बात करें तो भाजपा का चरित्र ही इस शब्द के खिलाफ रहा है। वह धर्मांधता फैला कर ही देश की सत्ता तक पहुंची है। हाल के दिनों में भाजपा समर्थक लोग बार-बार संविधान को हटाने, संविधान को बदलने, संविधान को आग लगन,े जैसी बातें सरेआम करते रहे हैं। ऐसी स्थिति में आज हमारे संविधान के सामने विकराल संकट खड़ा है। हम सबका कर्तव्य है कि इस तरह के प्रयासों का सामना करें, इनका विरोध करें, हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिलाने की दिशा में प्रयास करें। व्यक्ति की गरिमा का ध्यान रखें और देश के समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य के स्वरूप को बनाये रखने के लिए अपने-अपने स्तर पर जो कुछ हम कर सकते हैं, अवश्य करें।

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