
वन गूजर जंगलों से खदेड़े, पर नहीं दी जमीन
वन गूजरों की दास्तां : भाग-दो
सत्यम कुमार
अपने जीवन के पुराने दिनों के बारे में गुल्लो बीबी बताती हैं कि जब हम जंगलों में रहते थे, सर्दियों के मौसम में रात के समय अपने डेरों के आंगन में आग जलाकर रखते थे। जंगल में रहने वाले छोटे जानवर हिरण, चीतल और नील गाय हमारी बस्तियों के इर्द-गिर्द आ जाते थे और सुबह होने पर जंगल में वापस चले जाते थे। जंगल में रहने वाले जानवरों से एक प्रकार का रिश्ता बना हुआ था। गुल्लो बीबी कहती हैं, आज हमें सुनने को मिलता है कि जंगली जानवर बस्तियों में घुस रहे हैं, जबकि पहले मैदानों में आम बस्तियों और जंगली जानवरों के बीच गूजर बस्तियां दीवार का काम करती थी। जंगली जानवर हमारे डेरांे तक ही आते थ,े उससे आगे नहीं जाते थे। हमें जंगलों से हटा दिया गया है, लेकिन ज्यादातर लोगों को जमीन नहीं मिली है। ऐसे परिवार जंगलों की बाहर सड़कों और बस्तियों के आसपास रहने का विवश हैं।
अब वन गूजरों की स्थिति
राजाजी नेशनल पार्क को टाइगर रिज़र्व के तौर पर रिजर्व किया जाना था। तब पहली बार साल 1984 में इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को विस्थापित करने की बात सामने आयी। वन गूजर ट्राइव युवा संगठन के आमान गूजर बताते हैं कि वन गूजरांे को जंगल से विस्थापित करने का सिलसिला साल 1994 में ही शुरू हो गया था। इसके तहत लगभग 600 परिवारों को हरिद्वार के पास पथरी में बसाया गया। प्रत्येक परिवार को घर और 10 बीघा ज़मीन दी गयी। इस के बाद साल 2003 में लगभग 800 गूजर परिवारों को गेंडीखत्ता के निकट लालढांग में बसाया गया। इन परिवारों को 10 बीघा खेती की ज़मीन और लगभग 1 बीघा घर बनाने के लिए ज़मीन दी गयी। लेकिन, यहां पथरी की तरह घर बनाकर नहीं दिए गये। आमान गूजर बताते हैं, पहले वनों में रहने वाले गूजरांे के बच्चे पढ़ नहीं पाते थे। विस्थापन के बाद जो एक चीज अच्छी हुई है वह है कि आज हमारे समुदाय के बच्चे पढ़ने लगे हैं।
लालढांग गूजर बस्ती में रहने वाले हाजी जहूर बताते हैं, विस्थापन के समय हुए सामझोते के अनुसार जंगलों पर अब हमारा कोई अधिकार नहीं है। जंगल से विस्थापित होने के बदले में हमें 10 बीघा ज़मीन मिली है, लेकिन इस विस्थापन का सीधा असर हमारी संस्कृति पर पड़ा। हमारे पास कभी 100 से ज्यादा पशु हुआ करते थे। अब हम अपने पशुओं को चराने के लिए जंगल नहीं ले जा सकते, इसलिए आज हमारे परिवार के पास मात्र चार भैंस ही हैं। हम अपने रीति-रिवाज के अनुसार अपने घर नहीं बना सकते।
“हम लोगों को 2003 में विस्थापित किया गया, आज हमें लगभग 20 साल हो चुके हैं। इन 20 सालों में मैंने अपने गूजर परिवारों के परंपरागत तौर-तरीकों को एक सामान्य नागरिक के तौर-तरीकों में ढलते देखा है। अब हम केवल नाम से ही वन गूजर हैं। काम के तरीकों से हम भी किसान परिवार की तरह ही हैं। बस फर्क इतना है कि किसान के पास अपनी ज़मीन का मालिकाना हक होता है, लेकिन हमारे पास इस बात का कोई सुबूत नहीं है कि जिस ज़मीन पर हम लोग खेती कर रहे हैं, वह हमारी है, गुल्लो बीबी कहती हैं।
जिस जमीन पर हम पिछले 20 साल से खेती कर रहे हैं यह हमारी है, इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है। इसके चलते सरकार की ओर से किसानों को मिलने वाली किसी भी प्रकार की सुविधा हम लोगों को नहीं मिल पाती है। लालढांग गूजर बस्ती में रहने वाले सलीम गेगी यह बात कहते हैं। सलीम गेगी कहते हैं हम लोगों को किसान क्रेडिट कार्ड, पशुओं और ट्रैक्टर के लिए लोन भी नहीं मिल पाता है। अपने इन कार्यों के लिए हमंे साहूकारों कर्ज लेना पड़ता है। इसका भारी भरकम ब्याज देना पड़ता है।
अपनी ज़मीन पर मालिकाना हक़ के लिए वन गूजर समुदाय सालों से लड़ाई लड़ रहा है। इसके अतरिक्त जो परिवार अभी वनांे में रह रहे हैं, उनके अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए भी वन गूजर ट्राइव युवा संगठन के बैनर तले वन गूजर समुदाय के लोग अदालत और आंदोलन, दोनों तरह के रास्ते अपना रहे हैं।
क्या चाहते हैं वन गूजर
उत्तराखंड में एक लाख से ज्यादा गूजर समुदाय के लोग रहते हैं, लेकिन अब तक करीब 1400 परिवारों का ही विस्थापन हो पाया है। बाकी परिवार अब भी जंगलों में अपने कच्चे डेरे बनाकर रहते हैं। वे आज भी शिक्षा और अन्य बुनियादी सुविधाओं की पहुंच से बाहर हैं। इन परिवारों को जंगल में एफआरए के तहत मिलने वाले अधिकारों के लिए लड़ना पड़ता है। शादी-ब्याह या किसी रिश्तेदार को बुलाने के लिए भी जंगलात के अधिकारियों से अनुमति लेनी पड़ती है, श्मशेर गूजर इस समस्या के बारे में बताते हैं। शमशेर गूजर कहते हैं कि हम लोग भारत देश के वासी हैं फिर क्यों हमारे अधिकार बाकी देशवासियों से अलग है? हम लोग भी मुख्यधारा से जुड़ना चाहते हैं।
एफआरए के तहत मिलने वाले अधिकारों को लेकर आमान गुजर कहते हैं, यदि प्रशासन गूजर जनजाति को विस्थापित करना चाहता है तो सभी परिवारों को एक समान सुविधाएं देकर विस्थापित किया जाये और जब तक यह प्रक्रिया पूर्ण नहीं होती, तब तक वनों में रहने वाले परिवारों को एफआरए के तहत मिलने वाले अधिकारों को बिना किसी शर्त के दिया जाये।
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(लेखक शोधार्थी और स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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