
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के खिलाफ उत्तराखंड से जोरदार आवाज
आइसा के सम्मेलन में एनईपी वापस लेने की मांग
उत्तराखंड सरकार यह कहते हुए नहीं अघा रही है कि उसने राष्ट्रीय शिक्षा नीति, जिसे आमतौर पर नई शिक्षा नीति कहा जा रहा है, को देशभर में सबसे पहले लागू किया है। यह नीति राज्य में पहले प्राथमिक स्तर पर लागू की गई और बाद में राज्य सरकार ने इसे हायर सेकेंडरी स्तर पर भी लागू कर दिया। बेशक राज्य सरकार इसे अपनी महान उपलब्धि बताते हुए खुद अपनी पीठ थपथपा रही हो, लेकिन अब इस नीति के खिलाफ पहली दमदार आवाज भी उत्तराखंड से ही उठी है।
दरअसल ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) ने रामनगर (नैनीताल) अपना सम्मेलन आयोजित किया इस सम्मेलन में राष्ट्रीय शिक्षा नीति को छात्र विरोधी और निजीकरण हितैषी बताते हुए इसे वापस लेने की जोरदार मांग की गई। सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद कुमाऊं विश्वविद्यालय कार्यपरिषद के सदस्य एडवोकेट कैलाश जोशी ने कहा कि उत्तराखंड सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को लागू करने वाला पहला राज्य होने का दावा कर रही है, लेकिन वास्तव में यह नीति छात्र विरोधी है और निजीकरण को बढ़ावा देने वाली है।
उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में स्कूलों और महाविद्यालयों की स्थिति बेहद खराब है। शिक्षकों के सैकड़ों पद खाली पड़े हुए हैं। शिक्षण संस्थानों में मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति की आड़ में असल में न केवल शिक्षा के निजीकरण को तेज कर रही है, बल्कि पाठ्यक्रमों में भी इस तरह से बदलाव किए जा रहे हैं, ताकि अंधविश्वास और रूढ़िवादिता को बढ़ावा मिले। जाहिर है यह सत्तासीन पार्टी के इशारे पर किया जा रहा है।
यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी अंधविश्वासों और धार्मिक मान्यताओं के नाम पर ही चुनाव जीतती रही है। वह लगातार हिन्दू खतरे में है का नारा देकर लोगों को गुमराह करती रही है। यहां तक कि उसने देश में हिन्दुओं और अन्य धर्मावलंबियों के बीच एक चौड़ी दरार भी बना ली है। इसी के नाम पर वह वोट हासिल करती रही है। आगे भी उसका इरादा ही है। छात्रों और युवाओं को रूढ़िवादी, धार्मिक रूप से असहिष्णु और अंधविश्वासी बनने के लिए पाठ्यक्रमों में लगातार और चुपचाप बदलाव किए जा रहे है। कैलाश जोशी का यह भी कहना था कि पाठ्यक्रमों में इस तरह का बदलाव भारतीय संविधान की मूलभूत संरचना का उल्लंघन है। उनका कहना था कि ऐसी शिक्षा नीति के लिए संघर्ष करना होगा, जो न केवल निशुल्क सरकारी व्यवस्था हो, बल्कि भारतीय संविधान के तहत समता, समानता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को मजबूत करती हो।
इस सम्मेलन में विशिष्ट अतिथि के रूप में आइसा के पूर्व नेता डॉ. कैलाश पांडे मौजूद थे। उन्होंने कहा कि 2014 में नरेंद्र मोदी यह कहकर सत्ता में आए थे कि हर वर्ष 2 करोड़ लोगों को नौकरियां देंगे, लेकिन यह भी उनका सिर्फ चुनावी जुमला ही साबित हुआ। पिछले 8 सालों में स्थिति यह है कि नौकरी करने के काबिल लोगों में से बहुत कम संख्या में ही रोजगार मिले हैं। कइयों का तो रोजगार ही चौपट हो चुका है। फिलहाल जो रोजगार मिल रहा है, वह अस्थाई किस्म का है। सेना में भी मोदी सरकार ठेका प्रथा लागू कर रही है और इससे बहुत चालाकी के साथ अग्निवीर नाम दिया गया है।
उनका कहना था कि अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति के नाम पर पूरी शिक्षा व्यवस्था को ठेके पर देने की तैयारी कर ली गई है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति एनईपी को लेकर कोई बाधा उत्पन्न ना हो, इसलिए इसे संसद के पटल पर भी नहीं रखा गया। बिना संसद की अनुमति के ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू कर दिया गया। इस सम्मेलन में सर्वसम्मति से कुछ प्रस्ताव पास किए गए। इिनमें सेमेस्टर परीक्षा कोर्स पूरा होने के बाद करवाने, सभी छात्रों को पुस्तकें उपलब्ध करवाने, बीएड कोर्स सेल्फ फाइनेंस की जगह सामान्य फीस पर संचालित करने और राष्ट्रीय शिक्षा नीति को वापस लेने की मांग प्रमुख हैं।